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पद्मनन्दिपश्चविंशतिका ।
बैरी उसमोक्षकी प्राप्तिमें विघ्न न करता तो परिग्रह आदि के रहितपने आदिकारणोंसेही मोक्ष निश्चयसे हस्तगत होजाती अर्थात् उसकी प्राप्ति बहुत शीघ्र होजाती ।
भावार्थः - - मोक्ष की प्राप्तिमें अन्यान्य सामिग्रीके होतेसन्तेभी यदि स्वभावसे ही कुटिल ऐसा मोह विघ्न करनेवाला होत्रे तो कदापि मोक्षकी प्राप्ति नहीं होसक्ती इसलिये जो मनुष्य मोक्षके अभिलाषी हैं उनको सवसे पहिले मोहरूपी प्रवल वैरीको जीतलेना चाहिये क्योंकि यही मोक्षकी प्राप्तिर्मे विनका करनेवाला है और जवतक यह मोजूद रहता है तबतक मोक्षकी प्राप्तिमें दूसरे २ कारण व्यर्थ ही है ॥ ४८ ॥ त्रैलोक्ये किमिहास्ति कोपि स सुरः किंवा नरः किंफणी यस्माद्भीर्मम यामि कातरतया यस्याश्रयं चापदि। उक्तं यत्परमेश्वरेण गुरुणा निश्शेषवाञ्छाभयभ्रान्तिक्लेशहरं हृदि स्फुरति चेञ्चित्तत्वमत्यद्भुतम् ॥४९॥
अर्थ ः—– जो चैतन्यतत्व समस्तप्रकारके अभिलाषा भय भ्रम तथा दुःखोंका दूरकरनेवाला है और अत्यंत आश्चर्यका करनेवाला है ऐसा चैतन्यरूपीतत्व परमईश्वर श्रीगुरुद्वारा कहागया यदि मेरे हृदयमें स्फुरायमान है मोजूद है तो तीनोंलोकमें न तो कोई ऐसा देव है जिससे मुझे भय होवे और न कोई ऐसा पुरुष तथा सर्प ही है जिससे मैं डरूं और कातर होकर आपत्ति में किसीके सहारे जाऊं ।
भावार्थ:- जबतक मनुष्यको चैतन्यस्वरूपका भलीभांति ज्ञान नहीं होता तथा जब तक किसी पदाकी अभिलाषा रहती है और भय तथा भ्रम और दुःख होते हैं तब मनुष्य एकदम कातर होकर उस इच्छाकी पूर्ति के लिये तथा भय भ्रम दुःखोंके दूरकरनेकेलिये जहांतहां देवी देवआदिकों की सेवाकोलिये भटकता फिरता है और उससे कुछ फलभी नहीं निकलता किन्तु मेरे हृदय में तो श्रीगुरुमहाराजके उपदेशसे वह चैतन्य तत्व स्फुरायमान है जो चैतन्यस्वरूप तत्व समस्तप्रकारकी इच्छाओंका पूरण करनेवाला है और जिस
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