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पवनन्दिपञ्चविंशतिका। . की कृपासे भय भ्रम दुःख मेरे पास तकभी नहीं फटकने पाते फिर मुझे क्या आवश्यकता है जो मैं जहांतहां भटकू और इच्छाकी पूर्ति केलिये तथा भय भ्रम दुःख आदिके दूरकरनेकोलिये किसी देवी देवकी सेवा करूं ऐसा "जिसमनुष्यको चैतन्य स्वरूपका ज्ञान होगया है वह" सदा विचार करता रहता है॥ ४९ ॥
अब आचार्यवर श्रेष्ठज्ञानकी महिमाको गातेहुवे सद्बोधचन्द्रोदयनामक अधिकारको समाप्त करते हैं । तत्वज्ञानसुधार्णवं लहरिभिरं समुल्लासयन् तृष्णापत्रविचित्रचित्तकमले संकोचमुद्रां दधत् । सद्धिद्याश्रितभव्यकैरवकुले कुर्वन् विकारश्रियं योगीन्द्रोदयभूधरे विजयते सद्बोधचन्द्रोदयः ॥५०॥
अर्थः-बह श्रेष्ठज्ञानरूपी चंद्रमा अथवा "सहाधचन्द्रोदयनामक अधिकार" इससंसारमें योगियोंके जो इन्द्र अर्थात् बड़े २ योगी बेही हुवे उदयाचल उनमें सदा जयवंत है जो सद्बोधचन्द्रोदय, तत्वज्ञानरूपी जो अमृतसमुद्र उसको कल्लोलोंसे दूरतक उछालने वाला है औ तृष्णारूपाही हैं पत्र जिसमें ऐसे जो नानाप्रकारके चित्तरूपी कमल उनको संकुचित करनेवाला है तथा श्रेष्ठज्ञानका आधारभूत जो भव्यजीवरूपी "कैरवकुल " अर्थात् रात्रिविकासी कमलोंका समूह उसका विकास करनेवाला है।
भावार्थः-जिसप्रकार उदयाचलमें चंद्रमाका उदय होता है उससमय समुद्र अपनी लहरोंको दूरतक उछालता हवा बढ़ता चलाजाता है और सूर्यविकासी कमल संकुचित होजाते हैं तथा रात्रिविकासी कमल विकसित होजाते हैं उसीप्रकार जिससमय योगीश्वरोंकी आत्मामें श्रेष्ठज्ञानका उदय होता है अर्थात् जिस समय उनकी आत्मा सम्यग्ज्ञानको धारण करती है उससमय निरंतर उनयोगियोंका तत्वज्ञान बढ़ताही चलाजाता है और चित्तमें जो कुछ किसीवस्तुकी तृष्णा रहती है वहसब नष्ट होजीती है और मव्यजीवोंके मनको. अत्यंत प्रसन्नता होजाती है अर्थात् उनश्रेष्टज्ञानकेधारी योगीश्वरोंसे वास्तविकमुखके मार्गके सुननेसे भव्य
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