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पअनन्दिपञ्चविंशतिका । गियों में उत्तम योगी है अर्थात योगियोंका ईश्वर है और वही योगीश्वर समस्त चैतन्य स्वरूप प्राणियोंको अपने समान देखता है।
भावार्थः-यों तो वेषधारी बहुतसे योगी संसारमें देखने में आते हैं किन्तु वास्तविक योगी ( योगियोका ईश्वर ) वही योगी है जिसका चित्त संसारिक सुखोंसे सर्वथा विरक्त है और चैतन्यस्वरूप उत्तमपद मोक्षपदमें लगाहुवा है तथा वही मनुष्य समस्तप्राणियोंको अपने समान देखता है अन्ययोगी नहीं ॥ ४३ ॥ अव आचार्य इसवातको दिखाते हैं कि जितनेभर संसारमें जीव मोजूद हैं उनसवको
अपने समान ही देखना चाहिये तभी कार्यसिद्धि होती है। अंतरङ्गबहिरङ्गन्योगतः कार्यसिद्धिराखिलेति योगिना।
आसितव्यमनिशं प्रयत्नतः स्वं परं सदृशमेव पश्यता ॥ ४४ ॥ अर्थः-समस्तप्रकारके कार्योंकी सिद्धि अंतरंग तथा वहिरंग योगसे होती है इसलिये जो योगी आपको तथा परको समान देखनेवाला है उसको वड़ेभारी प्रयत्नसे रहना चाहिये ।
भावार्थ:-यह लोक एकेन्द्रीजीवोंसे पञ्चेन्द्रीजीवपर्यंत सवजगह घीके घड़े के समान भराहुवा है उनसवजीवों को जो मनुष्य अपने समान मानता है उसीको समस्तकााँकी सिद्धि होती है किन्तु जो मनुष्य अपनेसे छोटेजीवोंको तुच्छ समझता है इसीलिये उनके मारने में भी नहीं डरता है उस मनुष्यको कदापि किसी उत्तमकार्यकी सिद्धि नहीं होती इसलिये उत्तमकार्योंकी सिद्धिके अभिलाषी भव्यजीवोंको, आपको और परको समानही देखना मानाना चाहिये ॥ ४४ ॥ व, पुस्तक में आशितव्यम् यह भी पाठ है ।
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