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पद्यनन्दिपञ्चविंशतिका । सर्वथा रहित साम्यभावका ही अवलम्बन करै जहांतहां व्यर्थ भटकते न फिरें ॥४१॥ आचार्यवर परमात्माके नाममात्रके लेनसेही क्यालाभ होता है इसवातको वतलाते हैं।
नाममात्रकथया परात्मनः भूरिजन्मकृतपापसंक्षयः ।
बोधवृत्तरुचयस्तु तद्गताः कुर्वते हि जगतां पर्ति नरम् ॥ ४२ ॥ अर्थः-परमात्माके नाममात्रके कथनसेही अनेकजन्मोंमें संचय कियाहुवा पापोंका समूह पलभरमै नष्ट होजाता है और उसआत्मामे विद्यमान जो सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र रूपी रत्नत्रय है वहतो | मनुष्यको जगतका पतीही वनादेता है अर्थात् परमात्मपदको प्राप्त करादेता है।
भावार्थः-उस आत्माकी सिद्धिकेलिये प्रयत्न करना तो दूररहो किन्तु जो भव्यजीव उस परमात्माका केवल नामभी लेताहै उस मनुष्यके जन्म जन्मके पापों के समूह पलभरमें नष्ट होजाते हैं और उस आत्माम | विद्यमान जो सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक् चारित्र हैं वेतो इसको परमात्माही वनादेते हैं अर्थात् सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्रकी और लक्ष्यदेनेसे तो मनुष्य साक्षात् तीनलोकका पति (सिड) होजाता है इसलिये जो मनुष्य जन्मजन्मके पापोंके नाशकरनेकी इच्छा करनेवाले हैं तथा तीनोंलोकके पति होना चाहते हैं उनको चाहिये कि वे अवश्य परमात्माका नामलेवे और सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक् चारित्रकी और लक्ष्य देवे॥४२॥ जो मनुष्य चैतन्यस्वरूपआत्मामें लीनहै वह समस्तयोगियों में उत्तम हैं इसवातको आचार्य कहते हैं ।
चित्स्वरूपपदलीनमानसो यः सदा स किल योगिनायकः।
जीवराशिरखिलश्चिदात्मको दर्शनीय इतिचात्मसन्निभः ॥ ४३ ॥ अर्थः--जिसयोगीका चित्त चैतन्यरूपजो मोक्षपद उसमें लगाहुवा है वही योगी समस्त यो
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