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२८८॥
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पद्मनन्दिपश्चविंशतिका । हेय और उपादेय दोनोंप्रकारके पदार्थों में जो भव्य जीव हेयको छोड़कर उपादेयको ग्रहण
करता है वही मोक्षको जाता है इसबातको आचार्य दिखलाते हैं । यस्तुहेयमितरञ्च भावयन्नाद्यतो हि परमाप्तुमीहते।
तस्य बुद्धिरुपदेशतोगुरोराश्रयेत्स्वपदमेव निश्चलम् ॥ अर्थः--जो भव्यजीव हेय तथा उपादेयपदार्थों का रातदिन चितवन करता है और उनदोनोंमें त्यागने योग्य पदार्थों को त्यागकरता है उस भव्यजीवकी बुद्धि उत्तमगुरुके उपदेशसे चैतन्यरूपी जो अविनाशी स्थिरपद है उसको प्राप्त होती है इसमें किसीप्रकारका संशय नहीं ॥
भावार्थ:-संसारमें भव्यजीवोंको त्यागनेयोग्यपदार्थतो स्त्रीपुत्र धन धान्य आदिक पावार्थ हैं और ग्रहणकरने योग्य चैतन्य स्वरूप है इसप्रकारका विचारकर जो मव्यजीव स्त्री पुत्र धन धान्य आदिक त्यागने योग्य पदाथाको त्यागकरता है उसमनुष्यकी बुद्धि अवश्यही निर्लोभीउत्तमगुरुओंके उपदेशसे नहीं चलायमान तथा अविनाशी, चैतन्यस्वरूपको प्राप्त होती है इसलिये निश्चलचैतन्यस्वरूपके अभिलाषी भव्यजीवोंको अवश्यही हेय पदार्थोंका त्यागकरदेना चाहिये ॥ ३९ ॥ जो मनुष्य मोहनिद्रामें मन है उसमनुष्यको बाह्यपदार्थभी स्वस्वरूपही मालूम
पड़ते हैं इसवातको आचार्यवर दिखाते हैं। सुप्त एव बहमोहनिद्रया लंधितः स्वमवलादि पश्यति ।
जाग्रतोचवचसा गुरोर्गतं संगतं सकलमेव दृश्यते ॥ ४०॥ अर्थः-गाढ़ मोहरूपीनिद्राने जिसके ऊपर अपना प्रभावडाल रक्खा है अतएव जो मोहरूपी नींदमें मुप्त एतविद यहभी क. पुस्तक पाळ।
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