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पचनन्दिपञ्चविंशतिका । मन है वह मनुष्य अपनेसे भिन्नभी स्त्री पुत्र आदिको अपना मानता है किन्तु जो मनुष्य जगरहा है उसमनुष्यको तो समस्तजगत उत्तमगुरूके उपदेशसे संयुक्तमात्र क्षणभंगुरही मालूम पड़ता है।
भावार्थ:-जवतक जीव मोहनिद्रामें सोते रहते हैं तवतक उनको अपना पराया कुछभी भेद नहीं मालूम पड़ता इसीलिये वे जीव अपनेसे सर्वथा भिन्नभी स्त्री पुत्र धन धान्य आदिपदार्थोंको अपने स्वरूपही समझते हैं किन्तु जिससमय वे मोहनिद्रामें मन नहीं रहते उससमय उनकी दृष्टिके सामने गुरूके उपदेश से समस्तजगत् क्षणभंगुर मालूम पड़ता है अतएव वे अपनेसे भिन्न किसी पदार्थमें रतनहीं होते ॥४॥
निर्मल समाधिकी सिद्धिकेलिये बुद्धिमानपुरुषों को सर्वपदार्थोंमें समताही
धारणकरनीचाहिये इसवातको आचार्य दिखाते हैं । जल्पितेन बहुना किमाश्रयेद् बुद्धिमानमलयोगसिद्धये ।
साम्यमेव सकलैरुपाधिभिः कर्मजालजनितैर्विवर्जितम् ॥ ४१ ॥ अर्थः-आचार्यचर कहते हैं कि वहुत कहांतक कहाजावे जो पुरुष हुद्धिमान हैं अर्थात् जिन पुरुषोंको इसवातका भलीभांति ज्ञान है कि यह पदार्थ त्यागने योग्य है और यह पदार्थ ग्रहणकरने योग्य है उनको चाहिये कि वे निर्मल योगकी सिद्धिकेलिये नानाप्रकारके कमासे पैदा हुई जो नानाप्रकारकी उपाधियां उनसे सर्वथा रहित साम्यभावका आश्रयकरें।
भावार्थ:-जवतक पदार्थों में समता नहीं होती तवतक कदापि चित्तकी एकाग्रताके न होनेसे निर्मल योगकी प्राप्तिभी नहीं होसक्ती इसलिये आचार्यवर उपदेश देते हैं कि अधिक कहनेसे क्या ? जिन मनुष्योंको निर्मलयोगके प्राप्तकरनेकी अभिलाषा है उनको चाहिये कि वे समस्तप्रकारके कर्मोंसे उत्पन्न हुई उपाधियोंसे
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