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पचनन्दिपञ्चविंशतिका । भावार्थ:-जो दीपक पवनद्वारा स्पृष्ट नहीं है अर्थात् जिसका पवनने स्पर्श नहीं किया है और जिसमें अग्नि मौजूद है तथा जिसमें बत्ती उत्तम है ऐसा दीपक जिसप्रकार अंधकारको नाश करता है और प्रकाशमान रहता है उसीप्रकार जिस चैतन्यके साथ क्रोधादि कषायोंका संबंध नहीं है और जिसमें सम्यग्ज्ञान मौजुद है तथा जिसकी स्थिति निर्मल और देदीप्यमान है ऐसा चैतन्य अवश्यही मोहको नाशकर संसारमें प्रकाशमान रहता है ।। ३७ ॥ जो बुद्धि आत्मस्वरूपसे भिन्न बाह्यपदार्थों में भ्रमण करती है वह बुद्धि उत्तमबुद्धि नहीं इसबातको आचार्य समझाते हैं।
बाह्यशास्त्रगहने विहारिणी या मतिर्बहुविकल्पधारिणी
चित्वरूपकुलसनिगेता सा सती न सदृशी कुयोषिता ॥ अर्थः-जो बुद्धि अपने चैतन्यरूपी जो कुलगृह उससे निकली हुई है अतएव जो बाद्य शास्त्ररूपी बनमें विहार करनेवाली है। और अनेकप्रकारके विकल्पोंको धारण करनेवाली है ऐसी वह बुद्धि उत्तम बुद्धि नहीं किन्तु कुलटा स्त्रीके समान निकृष्ट है।
भावार्थ:-जिसप्रकार अपने घरसे निकलकर बाह्यवनों में भ्रमण करनेवाली और अनेकप्रकारके संकल्प विकल्पोंको धारण करनेवाली स्त्री कुलटा समझी जाती है और निकृष्ट समझी जाती है उसीप्रकार जो बुद्धि अपने चैतन्यरूपी मन्दिरसे निकलकर बाह्यशास्त्रों में विहार करनेवाली हैं और अनेक विकल्पोंको धारण करने वाली है अर्थात् स्थिर नहीं है ऐसी बुद्धि उत्तम बुद्धि नहीं समझी जाती इसलिये अपनी आत्माके हितके अभिलाषियोंको चाहिये कि वे अपने आत्माके स्वरूपसे भिन्न पदार्थों में अपनी बुद्धिको भ्रमण न करने देवें और स्थिर रक्खें उसीसमय उनकी बुद्धि उत्तम बुद्धि हो सक्ती है ।। ३८ ॥
9+000000000000०.०००००००००००००००००००००००००००००००००००
२८७॥
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