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पद्मनन्दिपश्चविंशतिका । से दियाहुआ दान ऊंचे नीचे फलका देनेवाला है इसप्रकार दान कुछ न कुछ फल अवश्य देता है इसलिये भव्यजीवोंको तो अपने आत्महितकेलिये उत्तम आदि पात्रों में निर्मल भावसे दान देना ही चाहिये ।। ४९ ।।
॥ अब आचार्य दानके भेदोंको बतलाते हैं ।
बसंततिलका । चत्वारि यान्यभयभेषजभुक्तिशास्त्रदानानि तानि कथितानि महाफलानि ॥
नान्यानि गोकनकभूमिरथाङ्गनादिदानानि निश्चितमवद्यकराणि यस्मात् ॥५०॥ अर्थः-अभय औषध आहार शास्त्र इसप्रकारसे दान चार प्रकारका है तथा वह चारप्रकारका दानतो महाफलका देनेवाला कहा है परंतु इससे भिन्न गौ सुवर्ण जमीन रथ स्त्री आदि दान महाफलका देनेवाला नहीं कहा है वह निन्दाका करानेवाला ही कहा है इसलिये महाफलके अभिलाषियोंको ऊपरकहाहुआ चारप्रकराका ही दान देना चाहिये ।। ५.॥
॥ आचार्य और भी दानका उपदेश देते हैं । यद्दीयते जिनग्रहाय धरादि किञ्चित्तत्तत्र संस्कृतनिमित्तमिह प्ररूढ़म् ॥
आस्ते ततस्तदधिदीर्घतरं हि कालं जैनञ्चशासनमतः कृतमास्ति दातुः ॥५१॥ अर्थः-जो जिन मन्दिरके बनानेकोलिये अथवा सुधारनेकेलिये जमीन धन आदिक दिये जाते हैं उससे जिनमन्दिर अच्छा बनता है तथा उसजिनमन्दिरके प्रभावसे बहुतकालतक जिनेन्द्रका मत इसपृथ्वीमण्डल पर बिराजमान रहता है इसलिये दाताने जिनमन्दिरकेलिये जमीन धन आदि देकर जैनमतका उद्दार किया ऐसा समझना चाहिये ॥ ५१ ।।
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॥१३४॥
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