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Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पद्मनन्दिपश्चविंशतिका । जिसप्रकार अमूर्तीकआकाश पर चित्र लिखना कठिन है उसीप्रकार परमात्माका वर्णन करना भी अत्यंत कठिन है।
भावार्थ:-इसअमूर्तीक परमात्माको इन्द्रियोंसे नहीं देखसक्ते इसलिये तो वह सूक्षम है और केवल दर्शन तथा केवलज्ञानसे देखा और जाना जासक्ता है इसलिये वह स्थूल भी है तथा सदा अपने स्वरूपमें विद्यमान रहता है और परपदार्थोंसे भिन्न है इसलिये शुद्धनिश्चयनयसे यह एक भी है और पर्यायाथिकनयकी अपेक्षा से इसकी अनेक ज्ञान दर्शन आदि पर्याय मोजूद हैं इसलिये यह अनेक भी है, तथा अहम् २ इत्याकारक स्वसंवेदनप्रत्यक्षके गोचर है अर्थात् अपनेसे जाना जाता है इसलिये तो स्वसंवेद्य है और इन्द्रियोंसे यह नहीं जाना जासक्ता इसलिये यह अवेद्य भी है तथा व्यवहारनयसे बचनसे कुछ कहा जाता है इसलिये तो यह अक्षर है किन्तु शुद्धनिश्चयनयसे इसको कुछ भी नहीं कहसक्ते इसलिये यह अनक्षर भी है अथवा "जिसका नाश न होवे वह अक्षर है" यदि ऐसा अक्षर शब्दका कर्थ करेंगे तोभी शुद्धनिश्चयनयस तो यह अक्षर ही है क्योंकि शुद्धनिश्चयनयसे इसका कुछभी नाश नहीं होता तथा व्यहारनयसे यह अनक्षर (विनाशीक) भी है क्योंकि प्रतिसमय इसकी पर्याय पलटती रहती है और इसकी समानताको धारण करनेवाला कोई पदार्थ नहीं है इसलिये यह उपमा रहित भी है तथा इसके वास्तविक स्वरूपको कुछभी कह नहीं सक्ते इसलिये यह अवक्तव्य भी है और इसके 'केवलज्ञानरूपी, गुणोंका किसी क्षेत्र आदिके द्वारा परिमाण नहीं किया जासक्ता अर्थात् वह समस्त लोक तथा अलोकका प्रकाश करनेवाला है इसलिये यह अप्रमेय भी है और यह अचित्य सुखका भण्डार है इसलिये आकुलता रहित भी है तथा यह परद्रव्य क्षेत्र काल भावकी अपेक्षासे रहित है इसलिये शून्यभी है और समस्त ज्ञान, दर्शन, सुख, आदि गुणोंसे भराहुवा है इसलिये यह पूर्ण भी है और द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा इसका विनाश नहीं होता इसलिये यह नित्य भी है तथा पर्यायार्थिक नयकी १८२॥
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