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पअनन्दिपञ्चविंशतिका । में ही पड़े रहते हैं वे मनुष्य मूढ़बुद्धि है और जिसघरमें दान नहीं दिया जाता वह घर अत्यन्तकठिन मोह का जाल है ऐसा भलीभांति समझकर अपने धनके अनुसार भव्यजीवोंको नानाप्रकारका दान अवश्य करना चाहिये क्योंकि यह उत्तमआदिपात्रोमें दिवाहुवा दानही संसाररूपीसमुद्रसे पारकरने में जहाजके समान है।
भावार्थ:-अत्यंत दुर्लभ इसमनुष्यभवको पाकर तथा ऊंचा कुल आदि पाकर भव्यजीवोंको मोक्षकेलिये प्रयत्न अवश्य करना चाहिये यदि मोक्षके लिये प्रयत्न न होसके तो शक्ति तथा धनके अनुसार दानतो अवश्य ही करना चाहिये क्योंकि यहदानही संसारसमुद्रसे पार करनेवाला है किन्तु दानके विना जीवनको तथा धन को कदापि व्यर्थ नहीं खोना चाहिये ॥१७॥ यैर्नित्यं न विलोक्यते जिनपतिर्न स्मर्यते नाय॑ते न स्तूयेत न दीयते मुनिजने दानं च भक्त्या परम् । सामयें सति तद्गृहाश्रमपदं पाषाणनावा समं तत्रस्था भवसागरेऽतिविषमे मजन्ति नश्यन्ति च ॥
अर्थः-जो मनुष्य समर्थहोनेपरभी निरन्तर न तो भगवानका दर्शनही करते हैं तथा न उनका स्मरण ही करते हैं और उनकी पूजा भी नहीं करते हैं तथा न उनका स्तवन करते हैं और न निग्रन्थ मुनियोंको भक्तिपूर्वक दानही देतेहैं उन मनुष्योंका वह गृहस्थाश्रमरूपस्थान पत्थरकी नावके समान है तथा उस गृहस्थाश्रममें रहनेवाले गृहस्थ इसभयंकर संसाररूपी समुद्र में नियमसे डूबते हैं और दूवकर नष्ट होजाते हैं इसलिये आचार्य उपदेश देतेहैं कि जो भव्यजीव गृहस्थाश्रमको तथा अपने जीवन और धनको पवित्र करना चाहते हैं उनको जिनेन्द्रदेवकी पूजा स्तुति आदिकार्य तथा उत्तमादि पात्रोंकेलिये दान अवश्यही देना चाहिये ॥ १८ ॥
___ आचार्य दाताकी महिमाका वर्णन करते हैं। चिन्तारलसुरद्रुकामसुरभिस्पोपलाद्या भुवि ख्याता एव परोपकारकरणे दृष्टा न ते केनचित् ।
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