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पद्मनन्दिपश्चविंशतिका ।,
सर्वे पुद्गलपर्यया बत परे त्वत्तः प्रमत्तो भवन्नात्मन्नेभिरभिश्रयस्यतितरामालेन किं बन्धनम् ॥ २४ ॥ अर्थः- आत्मन् न तो तुझे लोकसे काम है और न दुसरेके आश्रयसे काम है तथा न तुझे द्रव्यसे प्रयोजन है और न शरीरसे प्रयोजन है तथा तुझे बचन और इन्द्रियोंसे भी कुछ काम नहीं और प्राणोंसभी प्रयोजन नहीं तथा नानाप्रकार के विकल्पोंसे भी कुछ काम नहीं क्योंकि ये समस्त पुद्गलद्रव्यकीही पर्यायें हैं और तेरेसे भिन्न है तो भी बड़ेखेद की बात है कि तू इनको अपना मानकर आश्रय करता है सो क्या तू हढ़ बंधनको प्राप्त नहीं होगा ? अवश्य ही होगा ।
भावार्थः — हे आत्मन् तु तो निर्विकार चैतन्यस्वरूपी है और समस्तलोक तथा शरीर, इन्द्रिय, द्रव्य, वचन आदि समस्त पदार्य पुद्गल द्रव्यकी पयार्य है और तुझसे सर्वथा भिन्न है ऐसा होनेपर भी यदि तू इनको अपने समझकर आश्रय करेगा तो तू अवश्य ही बंधनको प्राप्त होगा इसलिये इनसमस्त परपदार्थोंसे ममताको छोड़कर शुद्धानंद चैतन्यस्वरूप आत्माका ध्यानकर जिससे तू कमसे न बधे ॥ २४ ॥ धर्माधर्मनभांसि काल इति मे नैवाहितं कुर्वते चत्वारोऽपि सहायतामुपगतास्तिष्ठन्ति गत्यादिषु । एकः पुद्गल एव सन्निधिगतो नोकर्मकर्माकृतिर्वैरी बन्धकृदेष सम्प्रति मया भेदासिना खण्डितः॥२५॥
अर्थः-- धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य, कालद्रव्य ये चारोंद्रव्य मेरे किसीप्रकार के अहितको नहीं करते हैं किंतु ये चारोंद्रव्य गति, स्थिति आदि कामोंमें सहकारी है इसलिये ये मेरे सहायी होकर ही रहते हैं परन्तु नोकर्म (तीन शरीर छे पर्याप्ति) तथा कर्म हैं स्वरूपजिसका ऐसा तथा समीपमें रहनेवाला और बंधका करनेवाला एक पुद्गल ही मेरा बैरी है इसलिये उसके इससमय मैंने भेदरूपी तलवारसे खंड २ उड़ा दिये हैं । भावार्थ — मुझसे धर्म, अधर्म, आकश, काल तथा पुद्गल ये पांच द्रव्य भिन्न हैं उनमेंसे धर्म, अधर्म, आ
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