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॥२७॥
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पचनन्दिपञ्चविंशतिका । भावार्थः-समस्तपदार्थों की सिद्धि किसी न किसी अपेक्षाके हाराही होती है यदि पदार्थों की सिद्धिमें अपेक्षा न मानीजाय अर्थात् यदि उनकी सिद्धि एकान्तरीतिसे ही कीजाय तो कदापि उनकी निर्दोष सिद्धि नहीं होसक्ती इसीलिये अनेकान्तात्मक तत्वमें किसी प्रकारका दोष आकर उपस्थित नहीं होता क्योंकि अपेक्षासेही अनेकान्तात्मक तत्वकी स्थिति है जैसे--यदि द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा कीजावे तो तत्व नाशकर रहित है और यदि पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षा कीजावे तो तत्वोंका नाशभी है और यदि परद्रव्यचतुष्टयकी अपेक्षा कीजावे तो तत्व शून्य भी है तथा स्वद्रव्यचतुष्टयकी अपेक्षा कीजावे तो सल शून्यताकर रहित भी है और शहनिश्चयनयकी अपेक्षासे एकभी है तथा व्यवहारनयकी अपेक्षासे अनेक भी है इसरीतिसे अस्तित्व नास्तित्वादि अनेक धर्म तत्वमें मोजूद है तथा वे सब अपेक्षास माने गयेहैं इसलिये उसमें किसी प्रकारका विरोध भी नहीं है ऐसा निश्चयसे समझना चाहिये ।। १४ ॥ ___ आत्मीकतत्वक पानेवालेही स्वस्वरूपके पानेवाले समझे जाते हैं इसवातको आचार्य दिखाते हैं।
विस्मृतार्थपरिमार्गणं यथा यस्तथा सहजचेतनाश्रितः।
स क्रमेण परमेकतां गतः स्वस्वरूपपदमाश्रयेदभुवम् ॥१५॥ अर्थः--मूर्छित हुवा मनुष्य जिसप्रकार सावधान होकर अपनी भूली हुई चीजको दूड़ता है पीछे शान्त होकर अपने स्वरूपमें स्थित होता है उसीप्रकार जो मनुष्य अनादिकालसे भूलेहुवे अपने स्वाभाविक चैतन्यको आश्रयकर क्रमसे साम्यभावको धारण करता है वह मनुष्य निश्चयसे आत्मस्वरूपको आश्रय करता है अर्थात् उसको आत्मस्वरूपकी प्राप्ति होती है ॥ १५ ॥
यद्यद्यदेव मनसि स्थितं भवेत्तत्तदेव सहसा परित्यजेत् ।
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