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॥२८४॥ja
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पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका । तत्पर जो सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्ररूपी बाण है वे समस्तकर्मरूपी वैरियोंको नष्ट करते हैं ॥३१॥
चित्तवाच्यकरणीयवर्जिता निश्चयेन मुनिवृत्तिरीदृशी
अन्यथा भवति कर्मगौरवात् सा प्रमादपदवीमुपेयुषः ॥ अर्थः--निश्चयकरके मुनियोंकी जो प्रवृत्ति है वह मन वचन कायकी प्रवृत्तिकर रहित है किन्तु वह मुनि यदि प्रमाद पदवीको प्राप्त हो जावे अर्थात् प्रमादी बनजावे तो कर्मकी गुरुतासे उसकी प्रवृत्ति विपरीत ही अर्थात् मन वचन कायकर सहितही हो जाती है।
भावार्थ:--निश्चयनयसे मुनियोंकी प्रवृत्ति मन वचन कायकी प्रवृत्तिकर रहित है किन्तु जिससमय वे प्रमादी बनजाते हैं उससमय प्रमादके द्वारा उनकी आत्मामें कौका आगमन होता है तथा पीछे कर्मोंका बंध होता है उससमय कर्मके संबंधसे उनकी प्रवृत्ति मनवचनकायकर सहितही होती है ।। ३२ ॥
सत्समाधिशशलाञ्छनोदयादुल्लसत्यमलबोधबारिधिः
योगिनोऽणुसदृशं विभाव्यते यत्र मनमाखिलं चराचरम् ।। अर्थ:-जिनयोगियों के निर्मलज्ञानमें चर अचर समस्तजगत परमाणुके समान मालूम पड़ता है ऐसा वह योगियोंका ज्ञानरूपीसमुद्र श्रेष्ठसमाधिरूपचन्द्रमाके उदयसे वृद्धिको प्राप्त होता है ।
भावार्थ:-जिसप्रकार चन्द्रमाके उदयसे समुद्र वृद्धिको प्राप्त होता है उसीप्रकार समाधिसे निर्मलज्ञान की वृद्धि होती जाती है तथा उसज्ञानमें समस्तजगत बड़ा भी परमाणुके समान छोटा मालूम पड़ता है अर्थात अनंत भी जगत उसज्ञानमें परमाणु के समान ही है ॥ ३३ ॥
कर्मशुष्कतृणराशिरुन्नतोऽप्युद्गते शुचिसमाधिमारुतात्
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