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2000
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पद्मनन्दिपश्चविंशतिका । भावार्थः-ध्यान अनेकप्रकारका होता है उनमें जो मनुष्य जैसा ध्यान करता है उसको उसीप्रकारके फल की प्राप्ति होती है इसलिये मोक्षाभिलाषियोंको चाहिये कि वे मोक्षके कारणभूत ध्यानको ही गुरूके उपदेशसे समझे और संसारका जो कारण ध्यान है उसकी और दृष्टि न देवें ॥ २६ ॥ शुहज्ञानस्वरूप वस्तुही रमणीकस्थानहै इसवातको आचार्य दिखाते हैं।
शुद्धबोधमयमस्ति वस्तु यद्रामणीयकपदं तदेव नः ।
स प्रमाद इह मोहजः कचित्कल्प्यते यदपरापि रम्यता ॥ २७॥ अर्थ:-जो वस्तु शुद्धबोधस्वरूप है अर्थात् निर्मलसम्यग्ज्ञानस्वरूप है वही हमारा रमणीय स्थान है किन्तु जो मनुष्य निर्मल सम्यग्ज्ञानसे अतिरिक्तभी रमणीयता है इसबात को कहते हैं वह वास्तविक रमणीयता नहीं किन्तु वह मोहनीय कर्मसे उत्पन्नहुवा प्रमाद ही है।
भावार्थ:--निर्मलसम्यग्ज्ञानस्वरूपही रमणीय है किन्तु इससे भिन्न कोईभी पदार्थ रमणीय नहीं है यदि कोई मनुष्य इससे भिन्न पदार्थकोभी रमणीय माने तो उसका प्रमादही समझना चाहिये ॥ २७ ॥
आत्मबोधशुचितीर्थमद्भुतं स्नानमत्रकुरुतोत्तमं बुधाः।
यन्न यात्यपरतीर्थकोटिभिः क्षालयत्यपि मलं तदन्तरम् ॥ २८ ॥ अर्थः--आचार्य उपदेश देते हैं कि हे भव्य पंडितो यदि तुम अपने पापोंका नाश करना चाहते हैं तो अत्यंत पवित्र तथा आश्चर्यके करनेवाले उत्तम इस आत्मज्ञानस्वरूपी तीर्थमेंही स्नानकरो क्योंकि जो अंतरंगका मल अन्यकरोड़ों तीत्थोंमें स्नानकरनेपरभी नष्ट नहीं होता है वह अंतरंगका मल इस आत्मज्ञानस्वरूप तीर्थमें एकसमय स्नानकरनेपर ही नष्ट होजाता है।
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