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पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका।। भीतर रहाहुवा आकाश नहीं जलता उसीप्रकार शरीरमें किसीकारणसे व्याधि उत्पन्न होजावे तो उस व्याधिसे शरीरही नष्ट होता है उसके भीतर रहेहवे आत्माका नाश नहीं होता।
भावार्थ:-जिसप्रकार मकानमें उठीहुई अग्निसे मकानही जलता है उसीप्रकार शरीरमें उठी हुई व्याधिसे शरीरही नष्ट होता है किन्तु अग्निसे जिस प्रकार मकानके भतिर रहा हुवा आकाश नहीं जलता | उसीप्रकार व्याधिसे शरीरके भीतर रहाहुवा चैतन्यस्वरूप आत्मा भी नष्ट नहीं होता ।। २४ ।।
बोधरूपमखिलरुपाधिभिवर्जितं किमपि यत्तदेव नः ।
नान्यदल्पमपि तत्वमीदृशं मोक्षहेतुरिति योगनिश्चयः ॥ २५॥ अर्थः-प्तमस्तप्रकारकी रागद्वेष आदि उपाधियोंसे रहित तथा सम्यग्ज्ञानस्वरूप जो कोई वस्तु है वही हमारी है किन्तु इससे भिन्न थोड़ी भी वस्तु हमारी नहीं है इसप्रकार जो योगका निश्चय है वहीं मोक्षका कारण है किन्तु इससे भिन्न योगका निश्चय मोक्षका कारण नहीं ॥ २५ ॥
अब आचार्य इसवातको दिखाते हैं कि योगसेही तो आत्मा बंधन को
प्राप्त होता है और योगसेही मोक्षको प्राप्त होता है। योगतो हि लभते विबंधनं योगतो हि किल मुच्यते नरः।
योगवर्त्म विषमं गुरोगिरा बोध्यमेतदखिलं मुमुक्षुणा ॥ २६ ॥ अर्थः-ध्यानसे ही तो मनुष्य बंधनको प्राप्त होता है तथा ध्यानसे ही मनुष्य मोक्षको प्राप्त होता है। इसप्रकार यह ध्यानका मार्ग अत्यंत कठिन है किन्तु जो भव्यजीव मोक्षके अभिलाषी हैं उनको यह समस्त ध्यानका मार्ग गुरूके उपदेशसे समझना चाहिये ।
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