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पद्मनन्दिपश्चविंशविका ।
ऊंचे पदकी प्राप्तिकेलिये जो मेरे चित्तमें उपदेश जमाया है अर्थात् उपदेशदिया है उस उपदेशके सामने क्षणभर में विनाशीक ऐसा पृथ्वीका राज्य मुझे प्रिय नहीं है यह बाततो दूररहो किन्तु हे प्रभो हे जिनेन्द्र उस उपदेश के सामने तीन लोकका राज्यभी मुझे प्रिय नहीं है ।
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भावार्थः यद्यपि संसारमें पृथ्वीका राज्य तथा तीनलोकका राज्यमिलना भी एक उत्तमबात है किन्तु हेभगवन् प्रसन्नचित्तसे श्रीवीरनाथ भगवानने जो मुझे उपदेशदिया है उसके सामने वे दोनों वातें मुझे इष्ट नहीं है इसलिये मैं ऐसे उपदेशकाही प्रेमी हूं ॥ ३२ ॥
सूरेः पङ्कजनन्दिनः कृतिमिमामालोचनामर्हतामग्रे यः पठति त्रिसन्ध्यममलश्रद्धानताङ्गो नरः । योगीन्द्रैश्चिरकालरूढतपसा यत्नेन यन्मृग्यते तत्प्राप्नोति परं पदं स मतिमानानन्दसद्म ध्रुवम् ॥३३॥
अर्थः — श्रद्धा से जिसका शरीर नम्रीभूत है ऐसा जो मनुष्य श्रीपद्मनन्दि आचार्य द्वारा कीगई अलोचना नामकी कृतिको तीनोंकाल श्रीअईन्तदेवके सामने पढ़ता है वह बुद्धिमान मनुष्य उसपदको प्राप्त होता है जिस पदको चिरकालपर्यंत तपकर बड़े २ मुनि घोरप्रयत्न करनेपर प्राप्त करते हैं ।
भावार्थः – जो मनुष्य प्रातःकाल मध्यान्हकाल तथा सायंकाल तीनोंकालोंमें श्रीअर्हन्तदेव के सामने अलोचनाका पाठ पढ़ता है वह शीघ्रही मोक्षको प्राप्त होता है इसलिये मोक्षाभिलाषियोंको अवश्यही श्रीअर्हत देवके सामने पद्मनन्दि आचार्यद्वारा बनाई हुई आलोचनानामक कृतिका तीनोंकाल पाठ करना चाहिये ॥३३॥ इसप्रकार इस ग्रंथ में आलोचनानामक अधिकार समाप्त हुवा ।
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॥२६६॥