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पअनन्दिपनविंशतिका। है किंतु जो मनुष्य आत्मासे भिन्न किसी दूसरेस्थानमें चैतन्यरूपी तत्त्व रहता है ऐसा समझते हैं तथा जानते है वे मूढबुद्धि मनुष्य वैसाही काम करते हैं जैसा कि मुट्ठीमें रक्खी हुई वस्तुको बनमें जाकर दूड़ना ।।
भावार्थ:-मुहीमें रक्खी हुई भी वस्तुका बनमें जाकर इडना जिसप्रकार व्यर्थ है उसीप्रकार अपनसे भिन्न स्थानमें चैतन्यका मानना तथा देखना वृथा है इसलिये चैतन्यतत्त्वके खोजकरनेवाले उत्तमपुरुषोंको चैतन्यतत्त्व अपनेमेंही समझना चाहिये अपनेसे भिन्न स्थानमें नहीं ॥९॥ अब आचार्य इसबातको दिखाते हैं कि जो मनुष्य आत्मीकवस्तुमें तत्पर है वे ही उत्कृष्टध्यानके पात्र हैं ।
तत्परः परमयोगसम्पदा पात्रमत्र न पुनर्बहिर्गतः।
नापरेण चलितः पथेप्सिता स्थानलाभविभवो विभाव्यते ॥ १०॥ अर्थः-यदि कोई मनुष्य मार्गतो दूसरा है परंतु उसको छोड़कर दूसरे मार्गसे चले तो कदापि उसको अभीष्ट स्थानका लाभ नहीं हो सक्ता किन्तु ठीक मार्गपर चले तभी वह अपने अभीष्ट स्थानपर पहुंच सक्ता है उसीप्रकार जो पुरुष आत्मामें आसक्त हैं वे ही मनुष्य उत्कृष्ट ध्यानके पात्र हैं किन्तु जो मनुष्य आत्मामें आसक्त नहीं हैं बाह्यपदार्थों में ही आसक्त हैं वे कदापि उत्कृष्टध्यानके पात्र नहीं और न हो ही सक्ते हैं इसलिये उत्कृष्टध्यानके प्रेमी उत्तमपुरुषोंको आत्मामें अवश्य आसक्त रहना चाहिये ॥१०॥ अब आचार्य इसचातको दिखाते हैं कि जो तपस्वी आत्मस्वरूपमें लक्ष्य नहीं देते वे मूर्ख हैं ।
साधु लक्ष्यमनवाप्य चिन्मये यत्र सुष्टु गहने तपस्विनः।
अप्रतीतिभुवमाश्रिता जडा भान्ति नाट्यगतपात्रसन्निभाः॥११॥ अर्थ-अत्यंत गहन ऐसे जिस चैतन्यरूपी तत्त्वमें भलीभांति लक्ष्य न देकर जो तपस्वी अज्ञानमयीभूमि
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