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पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका ।
किये हुवे चारित्र ( तप ) से होता है उस तपको शक्तिके अभाव से इस पंचमकालमें हेभगवन् मुझ सरीखा मनुष्य धारण नहीं करसक्ता इसलिये हे भगवन् यही प्रार्थना है कि भाग्यके उदयसे जो आपमें मेरी दृढभक्ति है उसीसे मेरे कर्म नष्ट हो जावे और मुझे मोक्षकी प्राप्ति होवे ॥ ३० ॥
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इन्द्रत्वं च निगोदतां च बहुधा मध्ये तथा योनयः संसारे भ्रमता चिरं यदखिलाः प्राप्ता मयाऽनन्तशः। तन्नापूर्वमिहास्ति किञ्चिदपि मे हित्वा विमुक्तिप्रदां सम्यग्दर्शनबोधवृत्तंपदवीं तां देव पूर्णां कुरु ॥३१॥
अर्थः- इस संसार में भ्रमणकर मैंने इन्द्रपना निगोदपना और बीचमें अन्य भी समस्त प्रकारकी योनि अनंतबार प्राप्तकी हैं इसलिये इन पदवियोंमेंसे कोई भी पदवी मेरे लिये अपूर्व नहीं है किन्तु मोक्षपदको देनेवाली सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्रकी पदवी अभीतक नहीं मिली है इसलिये हेभगवन् यह प्रार्थना है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्रकी पदवी कोही पूर्ण करो ।
भावार्थः — यद्यपि संसारमें बहुतसी इन्द्र चक्रवर्ती आदि पदवी हैं और वे समस्त पदवी मैंने प्राप्तभी करली हैं किन्तु हे भगवन् जो पदवी सर्वोत्कृष्ट मोक्षरूपी सुखके देनेवाली है वह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्रकी पदवी अभीतक मैंने नहीं प्राप्त की है इसलिये यह विनयपूर्वक प्रार्थना है कि कृपाकर मुझे सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्रकी पदवीको पूर्णतया प्रदान करें ॥ ३१ ॥ श्री वीरेण मम प्रसन्नमनसा तत्किञ्चिदुच्चैःपदप्राप्त्यर्थं परमोपदेशवचनं चित्ते समारोपितम् । येनास्तामिदमेकभूतलगतं राज्यं क्षणध्वंसि यत् त्रैलोक्यस्य च तन्न मे प्रियमिह श्रीमज्जिनेश प्रभो ॥ अर्थः- बाह्य तथा अभ्यंतर लक्ष्मीसे शोभित ऐसे श्री वीरनाथ भगवानने अपने प्रसन्नचित्तसे सबसे १- मृति यह भी ख. पुस्तक में पाठ दे ।
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