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पचनान्दपञ्चविंशतिका । सहाधचन्द्रोदयाधिकारः।
शार्दूलविक्रीड़ित । यजानन्नपि बुद्धिमानपि गुरुःशक्तो न वक्तुं गिग प्रोक्तं चेन्न तथापि चेतसि नृणां सम्माति चाकाशवत् । यत्र स्वानुभवस्थितेऽपि विरला लक्ष्यं लभन्ते चिरात्तन्मोक्षकनिबन्धनं विजयते चित्तत्वमत्यदभुतम्।
अर्थः-मोक्षरूपी सुखके देनेवाले जिस आत्मतत्वको भलीभांति जानता हुवा तथा बुद्धिमान भी वृहस्पतिवाणीसे कुछभी वर्णन नहीं करसक्ता है यदि किसी रीतिसे वर्णन भी करे तो भी अत्यन्त विस्तीर्ण होनेके कारण आकाशके समान मनुष्योंके हृदयमें उसको समाविष्ट नहीं करसक्ता है और स्वानुभवमें स्थितहोकर विरलेही प्राणी जिस आत्मतत्त्वको लक्ष्यमें लाते हैं ऐसा वह अत्यन्त आश्चर्यका करनेवाला आत्मतत्त्व सदा इसलोक में जयवन्त है।
भावार्थ:-यह आत्मतत्त्व कठिन तो इतना है कि जिसको साधारण पंडितोंकी तो क्या वात साक्षात वृहस्पति भी वर्णन नहीं करसक्त और विस्तृत इतना है कि वह किसीके हृदयमें आकाशकी तरह प्रविष्ट नहीं होसक्ता अर्थात् जिसप्रकार आकाश अधिक लम्बा चोड़ा है इसलिये वह किसी जगहपर नहीं अमासक्ता उसी प्रकार यह आत्मतत्त्वभी इतना विस्तृत है कि साधारणरीतिसे मनुष्य समझ नहीं सक्ते और अनेकप्रकारके प्रयत्न करनेपर विरलेही मनुष्य इस आत्मतत्त्वको लक्ष्यमें लासक्ते हैं ऐसा समस्त मोक्ष आदि उत्तम सुखोंका देनेवाला आत्मतत्त्व सदा इसलोकमें जयवंत है ॥१॥ नित्यानित्यतया महत्तनुतयानेकैकरूपत्वतश्चित्तत्वं सदसत्तया च गहनं पूर्ण च शून्यं च यत् । तज्जीयादखिलश्रुताश्रयशुचिज्ञानप्रभाभासुरो यस्मिन् वस्तुविचारमार्गचतुरो यः सोऽपि संमुह्यति ॥२॥
अर्थः-जो चैतन्यरूपी तत्त्व नित्य तथा अनित्यपनेसे और गुरू तथा लघुपनेसे तथा एकरूप और
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B२६७॥
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