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॥२६॥
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पअनन्दिपञ्चविंशतिका । प्रियहंसकलिये नमस्कार है॥
भावार्थ:-हंसका अर्थ आत्माभी है तथा सभी है जिसप्रकार हंस अत्यंत मनोहरभी कमलवनको छोड़कर और अत्यंत शुभ्र हंसिनीमें दृष्टिको लगाकर जलके भरेहुवे उत्तम सरोवरमें प्रीतिपूर्वक निवास करता है उसीप्रकार जो आत्मा अणिमा महिमा आदिक ऋद्धियोंकी कुछभी इच्छा न कर तथा अति आदरसे मोक्षमें दृष्टि लगाकर समतामें लीनहोता है उस आत्माकेलिये नमस्कार है ॥ ३ ॥
रथोद्धता । सर्वभावविलये विभाति यत्सत्समाधिभरनिर्भरात्मनः ।
चित्स्वरूपमाभितः प्रकाशकं शर्मधाम नमताद्भुतं महः॥ ४ ॥ अर्थः-चारोंतरफसे प्रकाशरूप तथा नानाप्रकारके कल्याणोंका देनेवाला और आश्चर्यकारी जो चैतन्य रूपीतेज समीचीन समाधिसे जिनकी आत्मा व्याप्त है ऐसे महामुनियोंके समस्त रागद्वेष आदि विभावोंके नाशहोनेपर प्रकट होता है उसंचतन्यरूपी तेजकेलिये नमस्कार करो ।
भावार्थः-यदि सामान्यतया देखाजावे तो जीवमात्रमें चैतन्यरूपीतेज मोजूद है किन्तु जो चैतन्यरूपी तेज समस्त रागादिभावोंके नाश होनेपर प्रकट होताहै और जो चौतर्फी प्रकाशरूप तथा समस्तप्रकारके कल्याFll णोंका देनेवाला है उस चैतन्यरूपी तेजके लिये नमस्कार है ॥ ४ ॥
विश्ववस्तुविधृतिक्षम लसज्जालमन्तपरिवर्जितं गिराम् ।
अस्तमेत्यखिलमेवहेलया यत्र तज्जयति चिन्मयं महः ॥५॥ अर्थ:--जो चैतन्यरूपीतेज समस्तपदार्थों का प्रकाशकरनेवाला है और स्वयं प्रकाशस्वरूप है तथा अंत
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SIN२६९॥
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