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पअनन्दिपञ्चविंशतिका । द्वैतं संसृतिरेव निश्चयवशाददैतमेवामृतं संक्षेपादुभयत्र जल्पितमिदं पर्यन्ककाष्ठागतम् । निर्गत्याद्यपदाच्छनः सबलितादन्यत्समालम्बते यः सोऽसंज्ञ इति स्फुटं व्यवदृतेब्रह्मादिनामेति च ॥
अर्थः-द्वैत सविकल्पकध्यानतो वास्तविकरीतिसे संसार स्वरूप है तथा अद्वैत (निर्विकल्पक) ध्यान मोक्षस्वरुप है यह संसार तथा मोक्षमें अंतदशाको प्राप्त संक्षेपसे कथन है तथाजो मनुष्य इनदोनोंमेंसे आदिका जो द्वैतपद है उससे धीरेसे हटकर अद्वैतपदको आलम्बन करता है वह पुरुष वास्तविक रीतिसे नामरहित हो जाता है अथवा उसी पुरुषको व्यवहार नयसे ब्रह्मा धाता आदि नामसे पुकारते हैं।
भावार्थ-जो पुरुष सविकल्पध्यानको करने वाला है वह तो संसारमें ही घूमा करता है किन्तु जो | पुरुष निर्विकल्पकध्यानको आचरण करता है वह मोक्षमें जाकर सिद्धपदको प्राप्त करता है तथा सिद्धोंका निश्चयनयसे कोई नाम न होनेसे वह नाम रहित हो जाते हैं अथवा व्यवहारनयसे उन्हीको ब्रह्मा आदि नामसे भी पुकारते हैं ॥ २९ ॥ चारित्रं यदभाणि केवलदृशो देव त्वया मुक्तये पुंसो तत्खलु मादृशेन विषमे काले कलौ दुर्धरम् । भक्तिर्या समभूदिह त्वयि दृढा पुण्यैः पुरोपार्जितैः संसारार्णबतारणे जिन ततः सैवास्तु पीतो मम ॥
अर्थ:-हे जिनेन्द्रदेव जो आपने केवलज्ञानरूपी दृष्टिसे मुक्ति के लिये चारित्रका वर्णन कियाहै उस चारित्रको इस भयंकर कलिकालमें मेरे समान मनुष्य बड़ी कठिनतासे धारण करसक्ताहै किन्तु पूर्वकालमें संचित जो पुण्य उससे जो मेरी आपमें दृढ़ भक्ति है वही हे जिन मुझे संसाररूपी समुद्रसे पारकरने में जहाजके समान हो अर्थात् मुझे संसार समुद्रसे वही भाक्त पार कर सकेगी।
भावार्थ:-विना काँका माशकर मोक्षको प्राप्ति नहीं हो सक्ती और कर्मोका नाश आपके द्वारा वर्णन
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