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पचनन्दिपश्चविंशतिका । जलके संगसे जो अत्यंत शीतल हैं ऐसे आपके चरणकमलोंमें मैं अपने मनको लगाता हूं तबतक मैं अत्यन्त सुखी रहता हूं।
भावार्थ:-जिसप्रकार स्थलमें पड़ी हुई मछली दुःखित रहती हैं उमीप्रकार इस नानाप्रकारके दुःखोंसे भरे हुवे संसारमें मैं भी सदा संतप्त रहता हूं तथा जिसप्रकार वही मछली जबतक जलमें भीतर रहती है तबतक सुखी रहती है उसीप्रकार जबतक मेरा मन करुणारूपी रससे अत्यंत शीतल आपके चरणकमलोंमें प्रविष्ट रहता है तबतक मैं भी सुखी रहता हूं इसलिये हे भगवन् आपके चरणकमलोंको छोड़कर मेरा मन दूसरी जगह न प्रवेश करै जिससे मैं दुःखी रहूं यही प्रार्थना है ॥ २२ ॥ साक्षग्राममिदं मनो भवति यद्वाह्यार्थसंबन्धभाक् तत्कर्म प्रविजृम्भते पृथगहं तस्मात्सदा सर्वथा। चैतन्यात्तव तत्तथेति यदि वा तत्रापि तत्कारणं शुद्धात्मन्मम निश्चयात्पुनरिव त्वय्येव देव स्थितिः॥
अर्थ-ह भगवन् इन्द्रियों के समूह कर सहित जा मेरा मन चाह्यपदा से संबन्ध करता है उसीसे नानाप्रकारके कर्म मरी आत्माके साथ आकर बंधते हैं किन्तु वास्तविकरीतिसे मैं उनकोसे सर्वकाल में तथा सर्वक्षेत्रमें जुदा ही हूं तथा आपके भी चैतन्यसे भी सर्वथा वे कर्म जुदे ही हैं अथवा उस चैतन्यसे कौकेभेद करनेमें आपहीकारण हैं इसलिये हे शुद्धात्मन् हे जिनेन्द्र निश्चयसे मेरी स्थिति आपहीमें है।
भावार्थ:-यदि निश्वयनयसे देखाजावे तो हे जिनेन्द्र आप तथा मैं समान ही हूं क्योंकि निश्वयनयसे आपकी आत्मा भी कर्मबंधकर रहित है तथा मेरी आत्माके साथ भी किसीप्रकार काँका बंधन नहीं रहता है इसलिये हे भगवन् मेरी स्थिति निश्चयसे आपके स्वरूपमें ही है ॥ २३ ॥ किं लोकेन किमाश्रयेण किमुत द्रव्येण कायेन किं किं वाग्भिः किमुतेन्द्रियैः किमसुभिः किं तैर्विकल्पैरपि।
२६०॥
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