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पचनन्दिपश्चविंशतिका । स्तविक पदार्थके सामने अवास्तविक पदार्थोंको अंशमात्रभी वास्तिक नहीं समझते। मनुष्योंको ग्रहणकरनेयोग्य वास्तविक पदार्थ सिद्धस्वरूप है और उससे भिन्न त्यागकरनेयोग्य सव अवास्तविक है इसलिये जवतक मनुष्योंकी दृष्टि उससिद्धस्वरूप तेजपर नहीं पड़ती है तवतक वे मनुष्य अवास्तविक स्त्री पुत्र सुवर्ण धन धान्य आदिकोही बास्तिवक तथा प्रिय मानते हैं किन्तु जिससमय उनको सिद्धस्वरूपतेजका अनुभव होजाता है उससमय वे सिद्धस्वरूपके सामने किसीभी साम्राज्य शरीर भोग आदिपदार्थों को उत्तम नहीं मानते और वास्तवमें ये उत्तम पदार्थभीनहीं इसलिये भव्यजीवोंको सिद्धस्वरूप तेजकी और ही अपनी दृष्टि देनी चाहिये तथा उसीका अनुभव करना चाहिये ।। २२ ॥ वन्द्यास्ते गुणिन स्तएव भुवने धन्यास्तएव ध्रुवं सिद्धानां स्मृतिगोचरं रुचिवशान्नामापि यैर्नीयते । ये ध्यायन्ति पुनः प्रशस्तमनसस्तान् दुर्गभूभृद्दरीमध्यस्था स्थिरनासिकाग्रिमदृशस्तेषां किमु ब्रूमहे॥२३॥
अर्थ:-जो मनुष्य प्रीतिपूर्वक सिहों के नामकामी स्मरण करते हैं वे मनुष्य भी जव संसारमें वंदने योग्य तथा गुणी और धन्य समझेजाते हैं तव जोमनुष्य पवित्रचित्तसे किले पर्वतोंकी गुफाके मध्यमें वैठिकर तथा नाकके अग्रभागमें दृष्टिलगाकर उनसिम्होंका ध्यान तथा उनके स्वरूपका मनन चितवन करते हैं आचार्य कहते हैं उनकी हम क्या कहैं ? अर्थात् वे उनसेभी अधिक धन्य है इसलिये भव्य जीवोंको चाहिये कि वे उनसिद्धों
स्वरूपका भलीभांति ध्यान करै यदि ध्यान न होसके तो उनके नामको अवश्यही स्मरण करै ॥ २३ ॥ all यः सिद्धे परमात्मनि, प्रविततज्ञानैकमूर्ती किल ज्ञानी निश्चयतः सएव सकलप्रज्ञावतामग्रणी । तर्कव्याकरणादिशास्त्रसहितैः किं तत्र शून्यैर्यतो यद्योगं विदधाति वेध्यविषये तद्वाणमावर्ण्यते॥२४॥
अर्थ:--विस्तीर्ण ज्ञानहीहै एक स्वरूप जिनका ऐसे सिद्धों में जो पुरुष ज्ञानी हैं अर्थात् सिद्धोंके स्वरूपका
4000.................................140114001.
२४४॥
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