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पवनन्दिपश्चविंशतिका । क्षेत्रों में यहजगत क्षणभरमें विनाशीक है ऐसा भलीभांति विचारकर यह मेरा मन इससमय हे जिनेन्द्र समस्त संसारके उत्पन्न करनेवाले जो व्यापार उनसे रहितहोकर निर्विकार परमानन्दस्वरूप परब्रह्म जो आप हैं सो आपमें ही ठहरनेकी इच्छा करता है ॥ १७ ॥ एनः स्यादशुभोपयोगत इतः प्रामोति दुःखं जनो धर्मः स्याञ्च शुभोपयोगत इतः सौख्यं किमप्याश्रयेत्॥ दन्द्धं द्वन्द्वमिदं भवाश्रयतया शुद्धोपयोगात्पुनः नित्यानन्दपदं तदत्र च भवानईन्नहं तत्र च ॥१८॥
अर्थः-जिससमय अशुभ उपयोग रहता है उससमय तो पापकी उत्पत्ति होती है तथा उसपापसे जीव नानाप्रकारके दुःखोंको प्राप्त होते हैं और जिससमय शुभ उपयोग रहता है उससमय धर्म (पुण्य) की उत्पत्ति होती है तथा धर्मसे जीवोंको सुख मिलता है और ये दोनों पापपुण्यरूपी इन्ह संसारके ही कारण हैं | अर्थात् इन दोनोंसे सदा संसार ही उत्पन्न होता रहता है किन्तु शुद्धोपयोगसे अविनाशी तथा आनन्दस्वरूप
पदकी प्राप्ति होती है और हे जिनेन्द्र आप तो उसपदमें निवास करते हैं तथा मैं शुद्धोपयोगरूपी पदमें निवास करता हूं।
भावार्थः-उपयोगके तीनभेद हैं पहला भशुभोपयोग दृसरा शुभोपयोग तीसरा शुद्धोपयोग उनमें आदिके जो दो उपयोग हैं उनसे तो संसारमें ही भटकना पडता है क्योंकि जिससमय जीवोंका उपयोग अशुभ होगा उससमय उनको पापका बंध होगा तथा पापके बंध होनेसे उनको नानाप्रकारकी खोटी २ गतियोमें भ्रमण करना पड़ेगा और जिससमय उपयोग शुभ होगा उससमय उस शुभयोगकी कृपासे उनको राजा महाराजा आदि पदोंकी प्राप्ति होगी इसलिये वहभी संसारका ही बढ़ानेवाला है किन्तु जिससमय उस शुभोपयोगकी प्राप्ति होगी उससमय संसारकी प्राप्ति नहीं हो सकती किन्तु निर्वाणकी प्राप्ति ही होगी इसलिये
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