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पअनन्दिपञ्चविंशतिका । करनेवाला तथा अहितकारी इसमेरे मोहको नष्टकरो।
भावार्थ:-जबतक मोहका संबन्ध आत्माके साथ रहेगा तवतक चित्त मेरा तेरा करनेसे बाह्यपदार्थाम घूमताही रहेगा और जबतक चित्त घूमता रहेगा तबतक सदा आत्मामें कौका आवागमनभी लगाही रहेगा तथा इसरीतिसे आस्मा सदा व्याकुलही रहेगा इसलिये हेभगवन् इस सर्वथा नानाप्रकारके अनथाके करने वाले मेरे मोहको नष्टकरो जिससे मेरी आत्माको शान्ति मिले ॥ १५ ॥
मोहही समस्तकमा में बलवान है इसबातको आचार्य दिखाते हैं । सर्वेषामपि कर्मणामतितरां मोहो वलीयानसौ धत्ते चञ्चलतां विभेति च मृतस्तस्य प्रभावान्मनः । नो चेजीवति को म्रियेत क इह द्रव्यत्वतः सर्वदा नानात्वं जगतो जिनेन्द्र भवता दृष्टं परं पय्ययः॥
अर्थः--ज्ञानावरण आदि समस्त काँके मध्यमें मोहही अत्यंत बलवान कर्म है और इसी माह के प्रभावसे यह मन जहां तहां चंचल होकर भ्रमण करता है और मरणसे उरता है यदि यह मोह नहोवे तो निश्चयनयसे न तो कोई जीवे और न कोई मरे क्योंकि आपने जो इसजगतको अनेक प्रकार देखा है वह पर्यायाथिकनयकी अपेक्षासेही देखा है द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षासे नहीं इसलिये हेभगवन् इसमेरे मोहकोही सर्वथा नष्ट कीजिये ॥ १६ ॥
___ शार्दलविक्रीड़ित । वातव्याप्तसमुद्रवारिलहरीसंघातवत्सर्वदा सर्वत्रक्षणभङ्गुरं जगदिदं संचित्य चेतो मम । सम्प्रत्येतदशेषजन्मजनकव्यापारपारस्थितं स्थातुं वाञ्छति निर्विकारपरमानन्दे त्वयि ब्रह्मणि ॥१७॥
अर्थः-पवनकर व्याप्त ऐसाजो समुद्र उसकी जो जललहरीं उनके समूहके समान सर्वकाल तथा सर्व
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