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॥२४॥
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पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका । निस्सङ्गत्वमरागिताथ समता कर्मक्षयो बोधनं विश्वव्यापि समं दृशा तदुतलानन्देन वीर्येण च ॥ ईदृग्देव तवैव संसृतिपरित्यागाय जातःक्रमः शुद्धस्तेन सदा भवञ्चरणयोः सेवा सतां सम्मता ॥
अर्थ-और भी आचार्य स्तुति करते हैं कि हे जिनेन्द्रदेव संसारके त्यागकेलिये परिग्रह रहितपना तथा रागरहितपना और समता तथा सर्वथा काका नाश और अनंतदर्शन अनंतसुख और अनंतवीर्य के साथ समस्त लोकालोकको प्रकाश करनेवाला केवलज्ञान ऐसा क्रम आपके ही हुआ था किन्तु आपसे भिन्न किसी देवके यह क्रम नहीं था इसलिये आपही शुद्ध है तथा आपके चरणोंकी सेवाही सज्जन पुरुषों को करने योग्य है।
भावार्थः-आपने ही संसारसे मुक्तहोनेके लिये हेभगवन् समस्त परिग्रहका त्यागकिया है तथा रागभावको छोड़ा है और समताको धारणकिया है तथा अनन्त विज्ञान अनन्तवीर्य अनन्त सुख और अनंतदर्शन आपके ही प्रकट हुवे हैं इसलिये आपही शुद्ध तथा सज्जनोंकी सेवाके पात्र हैं ॥ २ ॥ यद्यतस्य दृढ़ा स्थितिरभूत्त्वत्सेवया निश्चितं त्रैलोक्येश वलीयसोऽपि हि कुतः संसारशत्रोर्जयम् । प्राप्तस्यामृतवर्षहर्षजनकं सद्यन्त्रधारागृहं पुन्सः किं कुरुते शुचौ खरतरो मध्यान्हकालातपः॥३॥
अर्थः-हे तीनलोकके ईश यदि मेरे निश्चयसे आपकी सेवामें दृढ़पना है तो मुझे अत्यंत बलवानभी संसाररूपी वैरीका जीतना कोई कठिनबातनहीं क्योंकि जिसमनुष्यने जलके वर्षणसे हर्षको करनेवाले उत्तमफव्वारा सहितघरको प्राप्तकरलिया है उसपुरुषका जेठमासकी अत्यंत तीक्षणभी दुपहर कीधूप कुछ भी नहीं करसक्ती।
भावार्थ:-जिसप्रकार फव्वारा सहित उत्तमघरमें बैठे हुवे पुरुषका जेठमासकी अत्यंत कठोर भी दुपहरकी धूप कुछ नहीं करसक्ती उसीप्रकार यदि मैं निश्चयसे आपकी सेवामें दृढ़ रीतिसे स्थितहूं तो मुझे वलयान
कामवा यह भी क. पुस्तक पाठ है।
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