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पचनन्दिपञ्चविंशतिका। 1 विकल्पोंकर सहित हैं और जितने विकल्पोंकर सहित ये जीव हैं उतनेही नाना प्रकारके दुःखोंकर सहित भी
हैं किन्तु जितने विकल्प हैं उतने प्रायाश्चत्त शास्त्रमें नहीं हैं इसलिये उनसमस्त असंख्यात लोकप्रमाण विकल्पोंकी शुद्धि आपके पासमें ही होती है।
भावार्थ:-यद्यपि दूषणों की शुद्धि प्रायश्चित्तके करनेसेभी होती है किन्तु हे भगवन् जितने दूषण हैं. उतने प्रायश्चित्त, शास्त्रमें नहीं कहेगये हैं इसलिये समस्त दूषणोंकी शुद्धि आपके समीपमें ही होती हैं ॥१॥ भावान्तःकरणेन्द्रियाणि विधिवत्संहृत्य बाह्याश्रयादेकीकृत्य पुनस्त्वया सह शुचिज्ञानैकसन्मूर्तिना। निःसङ्गः श्रुतसारसंगतमतिः शान्तो रहःप्राप्तवान् यस्त्वां देव समीक्षते स लभते धन्यो भवत्सन्निधिम् ॥
हे भगवन् समस्तप्रकारके परिग्रहोंसे रहित और समस्तशास्त्रों का जाननेवाला तथा क्रोधादिकषायोंसे रहित. और एकान्तवासी जो भव्यजीव समस्त बाह्यपदार्थोंसे मन तथा इन्द्रियोंको हटाकर तथा अखंड और निर्मल सम्यग्ज्ञानरूपी मूर्तिकेधारी आपमें स्थिरकर आपको देखता है वह मनुष्य आपकी समीपता को प्राप्त होता है। - भावार्थ:-जबतक मन तथा इन्द्रियका व्यापार वाद्यपदार्थो में लगा रहता है तबतक कोईभी मनुष्य आपके स्वरूपको प्राप्त नहीं करसक्ता किन्तु जो मनुष्य मन तथा इन्द्रियोंको वाह्य पदार्थसे हटालेता है वही | वास्तविक रीतिसे आपके स्वरूपको देख तथा जानसक्ता है इसलिये जिममनुष्यने समस्तप्रकारके परिग्रहोंसे । रहितहोकर तथा शाखोंका भलीभांति ज्ञानी होकर और शान्त तथा एकान्तवासी होकर मन तथा इन्द्रियोंको वाह्य पदार्थोसे हटाकर तथा आपके स्वरूपमें लगाकर आपको देखलिया है उसीमनुष्यने आपके समीपपनेको प्राप्त किया है ऐसा भलीभांति निश्चित है ॥ ११॥ त्वामासाद्य पुराकृतेन महता पुण्येन पूज्यं प्रभुं ब्रह्माद्यरपि यत्पदं न सुलभं तल्लभ्यते निश्चितम् ।
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