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प्रअनन्दिपश्चविंशतिका । अर्थः-हे जिनेन्द्र आपको ही मैं तीनलोकका स्वामी मानताहूं और आपको ही अष्टकर्मीका जीतनेवाला तथा अपना स्वामी मानता है और केवल आपकोही भक्तिपूर्वक नमस्कार करताहूं और सदा आपकाही ध्यान करताहूं तथा आपकीही सेवा और स्तुति करताहूं और केवल आपकोही मैं अपना शरण मानताई अधिक कहनेसे क्या ? यदि कुछ संस्वारमें प्राप्त होवेतो यही झेवे कि आपके सिवाय अन्य किसी भी मेरा प्रजोजन न रहै ।
भावार्थ:-हे भगवन् आपसे ही मेरा प्रयोजन रहै आपसेभिन्न अन्यसे मेरा किसीप्रकारका प्रयोजन न रहे यह विनयपूर्वक प्रार्थना है ॥६॥ पापं कारितवान्यदत्र कृतवानन्यः कृतं साध्विति भ्रान्त्याहं प्रतिपन्नवांश्च मनसा वाचा च कायेन च । काले सम्प्रति यच भाविनि नवस्थानोद्गतं यत्पुनस्तन्मिथ्याखिलमस्तु मे जिनपते स्वं निन्दतस्ते पुरः॥
अर्थः-९ जिनेश्वर भूतकालमें जो पाप मैंने भ्रमसे मनवचकायकेहारा दूसरोंसे कराये हैं तथा स्वयं किये हैं और दृसगेको पाप करतेहुवे अच्छा कहा है तथा उसमें अपनी सम्मति दी है और वर्तमानमें जो पाप मैं मनवचकायकेद्वारा दूसरोंस कराता हूं तथा स्वयं करता हूं और अन्यको करतेहुवे भला कहता हूं और भविष्यत्कालमें जो मैं मनवचकायस पाप कराऊंगा तथा स्वयं करूंगा और दूसरेको करतेहुवे अच्छा मानूंगा वे समस्त पाप आपके सामने अपनी निन्दाकरनेवाले मेरे सर्वथा मिथ्या हो ।
भावार्थः-भूत भविष्यत् वर्तमान तीनों कालोंमें जिनपापोंका मैंने मनवचनकाय तथा कृतकारितअनुमोदनामे उपार्जन किया है तथा करूंगा और करता हूं उन समस्तपापोंका अनुभवकर हे जिनेश्वर मैं आपके सामने अपनी निन्दाकरता हूं इसलिये वे ससस्तपाप मेरे मिथ्या हो ॥ ७॥ लोकालोकमनन्तपर्यययुतं कालत्रयागोचरं त्वं जानासि जिनेन्द्र पश्यसि तरां शश्वत्समं सर्वतः।
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॥२५॥
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