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पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका भी संसाररूपी वैरी कुछ भी त्रास नहीं देसक्ता ॥३॥ यः कश्चिनिपुणो जगत्रयगतानर्थानशेषांश्चिरं सारासारविवेचनैकमनसा मीमांसते निस्तुषम् ।। तस्य त्वं परमेक एव भगवन् सारो ह्यसारं परं सर्वं मे भवदाश्रितस्य महती तेनाभवानिवृतिः ॥४॥
अर्थः-यह पदार्थ सारहै और यह असार है इसप्रकार सारासारकी परीक्षामें एकचित्तहोकर जो कोई बुद्धिमान मनुष्य तीनोंलोकके समस्तपदार्थोंका वाधारहित गहरीदृष्टिसे विचार करता है उसपुरुषकी दृष्टिमें हे भगवन् आपही एक सारभूतपदार्थ हैं और आपसे भिन्न समस्तपदार्थ असारभृतही हैं अतः आपके आश्रयसेही मुझे परम संतोषहुवा है ॥४॥ ज्ञानं दर्शनमयशेषविषयं सौख्यं तथात्यन्तिकं वीर्यं च प्रभुता च निर्मलतरा रूपं स्वकीयं तव । सम्यग्योगदृशा जिनेश्वर चिरात्तेनोपलब्धे त्वयि ज्ञातं किं न विलोकितं न किमथ प्राप्तं न किं योगिभिः
अर्थः-हे जिनेन्द्र समस्तलोकालोकको एकसाथ जाननेवाला तो आपका ज्ञान है और समस्त लोकालोकको एकसाथ देखनेवाला आपका दर्शन है और आपके अनंतसुख और अनन्त बल है तथा प्रभूपना भी आपका अतिशयकर निर्मल है और शरीरभी आपका देदीप्यमान है इसलिये यदि योगीश्वरोंने समीचीन योमरूपी नेत्रसे आपको प्राप्तकरलिया तो क्या तो उन्होंने जान न लिया? और क्या उन्होंने देख न लिया तथा क्या उन्होंने पा न लिया ?
भावार्थः-यदि योगीश्वरोंने अपनी उत्कृष्ट योगदृष्टिसे अनन्त गुणोंकेधारी आपको देखलिया तो उन्होंने सबकुछ देखलिया और सब कुछ जानलिया तथा प्राप्त कर लिया ॥ ५ ॥ त्वामेकं त्रिजगत्पति परमहं मन्ये जिनं स्वामिनं त्वामेकं प्रणमामि चेतसि दधे सेवे स्तुवे सर्वदा । त्वामेकं शरणं गतोऽस्मि बहुना प्रोक्तेन किश्चिद्भवे सिद्धं तद्भवतु प्रयोजनमतो नान्येन मे केनचित् ॥
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