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॥२४॥
पचनन्दिपश्चविंशतिका । ही नहीं आते हैं तो वे वचनके अगोचर भी हैं इसलिये उनकी स्तुति तथा उनके विषयमें वर्णन करना भी अत्यंत कठिन है तोभी मेरी जो उन सिद्धोंमें भक्ति है उसने मुझे वाचालित किया है इसीलिये मैंने यह कुछ उन सिहोंकी स्तुति की है ॥ २९ ॥
इसप्रकार पद्मनन्दिआचार्य विरचित इस पद्मनन्दिपञ्चविंशतिकामें
सिहस्तुतिरूप अधिकार समाप्तहुआ ।
......04.000000000001.0000०००००.........00000001.
100000000000000000000000000000
आलोचनाधिकारः।
शार्दूलविक्रीड़ित । यद्यानन्दविधिं भवन्तममलं तत्वं मनोगाहते त्वन्नामस्मृतिलक्षणो यदि महामन्त्रोऽस्त्यनन्तप्रभः ॥ यानं च त्रितयात्मके यदि भवेन्मार्गे भवद्दर्शिते को लोकेऽत्र सतामभीष्टविषये विघ्नो जिनेश प्रभो ॥
अर्थः-है जिनेश हे प्रभो यदि सज्जनोंका मन अंतरंग तथा वहिरंगमलसे रहितहोकर तत्वस्वरूप तथा वास्तविक आनन्दके निधान आपको अवगाहन (आश्रयण) करता है और यदि उनके मनमें आपके नामका स्मरणरूप अनंतप्रभाकाधारी महामंत्र मौजूद है तथा आपसे प्रकट कियेहुए सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र रूपी मोक्षमार्गमें यदि उनका गमन है तो उन सजनोंको अभीष्टकी प्राप्तिमें किसीप्रकारका विघ्न नहीं आसक्ता ॥
भावार्थ:-यदि सज्जनोंके मनमें आपका ध्यान होवे तथा आपका नाम स्मरणरूप महामंत्र मौजूद होवे | और यदि वे मोक्षमार्गमें गमन करनेवाले होवें तो उनके अभिलषितकप्रिाप्तिमें किसीप्रकारका विघ्न नहीं आसक्ता ॥१॥
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२४८॥
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