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॥२४६H
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पचनन्दिपश्चविंशतिका उस सिद्धस्वरूपका ज्ञान पहिलेसे ही मौजूद है तो पुनः न्याय व्याकरणआदि शास्त्रोंका अध्ययन, विना प्रयोजन का ही है ऐसा समझना चाहिये ॥ २५ ॥
शालविक्रीड़ित । सर्वत्र च्युतकर्मवन्धनतया सर्वत्र सद्दर्शनाः सर्वत्राखिलवस्तुजातविषयव्यासक्तबोधत्विषः सर्वत्रस्फुरदुन्नतोन्नतसदानंदात्मका निश्चलाः सर्वत्रैव निराकुलाः शिवसुखं सिद्धाःप्रयच्छन्तु नः॥
अर्थः-जिन सिद्धोंके समस्तआत्मप्रदेशोसें कर्मबंध छूटगया है तथा जिनके समस्त आत्मप्रदेशोंमें समीचीन दर्शन मौजूद है अर्थात् जो सम्यग्दर्शनके धारी है और समस्त पदार्थोंके समूहको जाननेवाली सम्यग्ज्ञानरूपीकिरण जिनके समस्त आत्मप्रदेशोंमें व्याप्त है तथा जिनके सर्वत्र सर्वोत्कृष्ट चिदानंद स्वरूपतेज फुरायमान है और जो निश्चल तथा निराकुल है ऐसे सिद्धभगवान हमारेलिये मोक्षसुखको प्रदानकरो ॥
भावार्थर-जो समस्तकाकर रहित हैं तथा सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्रके धारी हैं और निश्चल तथा समस्त प्रकारकी आकुलताकर रहित हैं ऐसे सिडभगवान हमारे लिये मोक्षरूपीमुखको प्रदान करो अर्थात् ऐसे सिहोंके हम सेवक हैं ॥२६॥
आत्मोत्तुङ्गगृहं प्रसिद्धवहिराद्यात्मप्रभेदक्षणं वहात्माध्यवसानसंगतलसत्सोपानशोभान्वितम् ॥ तत्रात्माविभुरात्मनात्मसुद्ददो हस्तावलम्बी समारुह्यानन्दकलत्रसंगतभुवं सिद्धःसदा मोदते ॥
अर्थः--जहांपर बहिरात्मा तथा अंतरात्माके भेदको वास्तविकरीतिसे देखसक्ते हैं और जो भात्माका अध्यवसान (चितवन) रूप जो मनोहर सीढ़ी उसकर शोभायमान है ऐसा यह आत्मारूपी ऊंचा मकान है उसपर चढ़कर आत्मरूपी मित्रका अवलम्बी अर्थात् अपनेको स्वयं आपही आधार तथा चिदानंदस्वरूप स्त्रीकर
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॥२४क्षा
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