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Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पचनन्दिपञ्चविंशतिका। जो भलीभांति जाननेवालाहै वास्तविकरीतिसे वही समस्त विद्वानोंमें मुख्य है ऐसा समझना चाहिये और यदि न्यायशास्त्र तथा व्याकरण आदिशास्त्रोंके जानकारभी हुवे तथा हृदयसे शून्यही रहे तो उनसे कोई प्रयोजन नहीं क्योंकि जो वेधनेयोग्य पदार्थमें निशानको करता है वही बाण कहलाता ।
भावार्थ:-जो वाण वेधनेयोग्यपदार्थमें निशान करता है वही जिसप्रकार वाण कहलाता है अन्यनहीं उसीप्रकार न्याय व्याकरण आदिशास्त्रोंको भलीभांति अध्ययनकरके जो मनुष्य सिहोंके स्वरूपका जानकार है वही वास्तविक रीतिसे विद्वानोंमें अग्रणी विद्वान है किन्तु न्याय व्याकरण आदि शास्त्रोंको भलीभांति पढ़कर जिसने सिहोंके स्वरूपको नहीं पहिचाना वह अंशमात्रभी विद्वान नहीं इसलिये भव्यजीवोंको चाहिये कि के न्याय व्याकरण आदि शास्त्रोंको भलीभांति जानकर सिद्धोंके स्वरूपके ज्ञातावने ॥ २४ ॥ सिद्धात्मा परमः परं प्रविलसद्वोधः प्रबुद्धात्मना येनाजायि स किं करोति बहुभिः शास्त्रैर्बहिर्वाचकैः । यस्य प्रोद्गतरोचिरुज्वलतनुर्भानुः करस्थो भवेत् ध्वान्तध्वंसविधौ स किं मृगयते रत्नप्रदीपादिकान् ।।
अर्थ-प्रबुद्ध है आत्मा जिसकी ऐसे जिस भव्यजीवने देदीप्यमान ज्ञानका धारी तथा सर्वोत्कृष्ट ऐसे सिद्ध भगवानके स्वरूपको जानलिया है उस भव्यजीवको वाह्यशास्त्रोंसे क्या प्रयोजन है? अर्थात् कुछ भी प्रयोजन Bा नहीं क्योंकि जिस मनुष्यके हाथमें जिसकी किरण उदित होरही है ऐसा प्रकाशयान सूर्य मौजूद है वह मनुष्य अंधकारके नाशकरनेकेलिये क्या रत्न तथा प्रदीपआदि पदार्थोंका अन्वेषण करता है ? कदापि नहीं ।
भावार्थ:-रन तथा प्रदीपआदि पदार्थोकी अपेक्षा अंधकारके नाशकालिये ही की जाती है यदि हाथमें स्थित प्रकाशमान सूर्यसे ही अंधकारका नाश होगया तो फिर जिप्रसकार प्रदीपआदिकी अपेक्षा नहीं करनी पड़ती उसीप्रकार न्याय व्याकरणआदि शास्त्रोंका अध्ययन सिद्धस्वरूपके जाननेकेलिये किया जाता है यदि
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