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पचनन्दिपविशतिका । जो अज्ञानीमनुष्य उसको अन्य प्रयोजनकेलिये कल्पना करते हैं वे निश्चयसे मोक्षमार्गसे भ्रष्टहें है अर्थात् सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्ररुपमोक्षमार्गका उनको अंशमात्रभी ज्ञान नहीं है क्योंकि विचारशीलहो नेपर परंपरासे आये हुवे द्रव्यश्रुतको छोड़कर यदि वह भाबश्रुतसेभी मार्गका चिंतबन करै तोभी उनके स्फुटरीति से समस्त शास्त्रकी प्राप्ति होती है।
भावार्थ-चाहै द्रव्यश्रुत हो चाहै भावभुतहो समस्तही शास्त्रोंसे सिद्धपनेको प्राप्ति होती है किन्तु जो पुरुष शास्त्रको अन्यप्रयोजनकी सिद्धिकेलिये मानते हैं वे अज्ञानीही हैं ऐसा समझना चाहिये ॥ १८ ॥ निश्शेषश्रुतसम्पदः शमनिधेराराधनायाः फल प्राप्तानां विषये सदैव सुखिनामल्यैव मुक्तात्मनाम् । उक्ता भक्तिवशान्मयाप्यविदुषा या सापि गीः साम्प्रतं निःोणीभवितादनन्तसुखतद्धामारुरुक्षोर्मम॥
अर्थः-जिन्होंने आराधनाके फलको प्राप्तकरलिया है तथा जो सदाकाल सुखी है ऐसे सिहोंके विषय में जो मुझ अपंडितने भक्तिके वशसे थोड़ीसे वाणी कही है अर्थात् जोकुछ भक्तिपूर्वक उनकी थोडीसी स्तुति की है वह थोड़ीसीही वाणी ( स्तुति ) समस्तशास्त्ररुपी संपदाके धारी तथा शमी मुझ अनन्त सुखमय माक्ष रुपी महलपर चढनेकी इच्छाकरनेवालेकेलिये निःश्रेणी (सीढी) के समान है॥ १९ ॥ विश्वं पश्यति वेत्ति शर्म लभते स्वोत्पन्नमात्यन्तिकं नाशोत्पत्तियुतं तथाप्यविचलं मुक्त्यर्थिनां मानसे । एकीभूतमिदं वसत्यविरतं संसारभारोज्झितं शान्तं जीवधनं द्वितीयरहितं मुक्तात्मरूपं महः ॥२०॥
अर्थः-यद्यपि जो सिद्धस्वरूपतेज समस्तलोकको देखता है तथा समस्त लोकको जानता है और सब से अंतमें होने वाले आत्मीक सुखको प्राप्त है और उत्पाद व्यय तथा भौव्यकर सहित है वोभी मोक्षाभिलाषी मनुष्यों के मन में वह संसारमें भारस्वरुप जो जन्म मरणादि उनकर रहित शान्त, तथा ज्ञाचस्वरुप और अपने
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