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४३३२॥ler
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Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पबनन्दिपञ्चविंशतिका । सर्वेषामुपरि प्रवृद्धपरमज्ञानादिभिः क्षायिकैर्युक्ता न व्यभिचारिभिः प्रतिदिनं सिद्धान्नमामो वयम् ॥
अर्थः-समस्तप्रकारके देवोंके मुकटोंमें लगीहुई जो मणि उनसे जिनके चरणोंके युग्म पूजित हैं ऐसे उत्कृष्टदेव तीर्थकरभी जिसउच्चपद सिद्धपदकी प्राप्तिकेलिये प्रयत्नकरते हैं ऐसे समस्तलोककी शिखरपर विराजमान तथा कलंकरहित अत्यंत विस्तीर्णज्ञान आदि क्षायकगुणोंके धारी सिद्धोंको प्रतिदिन हम नमस्कार करते हैं।
भावार्थ:-समस्तदेव आकार तीर्थंकरभगवानकी सेवा पूजा आदि करते हैं इसलिये यद्यपि संसारमें तीर्थकरभी एक प्रधानपद है तोभी वे तीर्थकर सदा उस सिद्धपदकी प्राप्तिकेलिये सदा प्रयत्न करते रहते हैं तथा जो सिद्ध तीनलोकके शिखरपर विराजमान हैं निर्दोष विस्तीर्ण क्षायिकज्ञान आदि गुणोंके धारी हैं हैं ऐसे सिद्धोंको सदा हम नमस्कार करते हैं ॥ २ ॥ ये लोकाग्रविलम्बिनस्तदधिकं धर्मास्तिकायं विना नो याताःसहजस्थिरामललसदृग्बोधसन्मूर्तयः। संप्राप्ताः कृतकृत्यतामसदृशाः सिद्धा जगन्मङ्गलं नित्यानन्दसुधारसस्य च सदा पात्राणि ते पान्तु वः॥
अर्थः--जो सिहभगवान लोकके अग्रभागमें विराजमान है तथा जो धोस्तिकायकी सहायतासे लोकके अग्रभागमें गये हैं और जिनका स्वरूप स्वाभाविक तथा निश्चल जो निर्मलज्ञान और दर्शन उससे शोभायमान है और जो कृतकृत्य है और जिनकी उपमाको कोईभी धारण नहीं करसक्ता और जो .समस्तजगतको मंगलके करनेवाले हैं तथा जो अविनाशी आनन्दरूपी अमृतके पात्र हैं ऐसे सिद्धभगवान आपकी रक्षाकरो। अर्थात् एसे सिहभगवानकेलिये मैं सदा नमस्कार है ॥३॥ ये जित्वा निजकर्मकर्कशरिपून् प्राप्ताः पदं शाश्वतं येषां जन्मजरामृतिप्रभृतिभिः सीमापि नोलंध्यते । येष्वैश्वर्यमचिन्त्यमेकमसमज्ञानादिसंयोजितं ते सन्तु त्रिजगच्छिखाग्रमणयः सिद्धा मम श्रेयसे ॥ ४ ॥
*IRBU
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