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॥२३५॥
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पचनन्दिपश्चविंशतिका । समस्तप्रकारके वेदनीयकर्मका नाश होगया है इसलिये वे इन्द्रियजन्य सुख और दुःखसे रहित हैं ॥१॥ यैर्दुःखानि समाप्नुवन्ति विधिवजानन्ति पश्यन्तिनो वीर्य नैव निजं भजन्त्यसुभृतो नित्यं स्थिताःसंसृतौ।। कर्माणि प्रहतानि तानि महता योगेन यैस्ते सदा सिद्धा नित्यचतुष्टयामृतसरिन्नाथा भवेयुन किम् ॥७॥
अर्थः-संसारमें जिन कौकी कृपासे संसारीजीव नानाप्रकारके दुःखोंको सहन करते हैं तथा वास्तविक रीतिसे पदार्थों के स्वरूपको न तो जानते हैं और न देखतेही है तथा जिनकमौकी कृपासे जीव सामर्थ्यको भी नहीं प्राप्त करते हैं उन कर्मोंको जिन्होंने दुर्घर्षध्यानसे जड़से नष्ट करदिया है वे सिहभगवान क्या अनन्त विज्ञान आदि अनन्तचतुष्टयरूपी अमृत नदीके खामी (समुद्र) अर्थात् अनन्तचतुष्टयके धारी नहीं है ? अवश्यही है।
भावार्थ:-जिन सिडभगवानने अनन्तज्ञान अनन्तदर्शन आदि समस्तगुणोंके रोकनेवाले काँका नाशकिया है वे सिद्ध अनन्तचतुष्टयके धारी हैं ॥ ७ ॥ एकाक्षादहुकर्मसंवृतमतेर्थक्षादिजीवाः सुखज्ञानाधिक्ययुता भवन्ति किमपि क्लेशोपशान्तेरिह । यैः सिद्धास्तु समस्तकर्मविषमध्वान्तप्रबन्धच्युताःसद्धोधाःसुखिनश्च ते कथमहो न स्युस्त्रिलोकाधिपाः॥८॥
अर्थः-बहुत काँसे छिपा हुवा है ज्ञान जिनका ऐसे एकेन्द्रीजीवोंकी अपेक्षा जब कुछएकदुःखोंकी शान्तिसे दो इन्द्री आदिक जीव अधिक सुखी तथा अधिक ज्ञानवान है तो जो समस्त कर्मरूपी भयंकरअंधकारके संबन्धसे रहित है और जो तीनोलोकोंके स्वामी है ऐसे सिद्धभगवान क्यों नहीं सबकी अपेक्षा अधिक श्रेष्टज्ञानके धारी तथा अधिक सुखी होंगे।
भावार्थ:-जैसा २ ज्ञान अधिक २ बढ़ता जाता है वैसा २ सुख भी अधिक बढ़ता चला जाता है एकन्द्रीसे दो इन्द्री का ज्ञान कुछ अधिक है इसलिये वह एकेन्द्रीकी अपेक्षा अधिक सुखी है इसीरीतिसे दो इन्द्री
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