________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kcbatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पअनन्दिपञ्चविंशतिका । आयुर्नाशवशान्न जन्ममरणे गोत्रेन गोत्रं विना सिद्धानां न च वेदनीयविरहाद्दुःख सुखं चाक्षजम् ॥
अर्थः-ज्ञानावरणीय तथा दर्शनावरणीयके नाश हो जानेसे तो सिडोंके अनन्त ज्ञान तथा अनन्त दर्शन है और मोहनीयकर्मके सर्वथा क्षय होजानेके कारण उनको अनन्तसुखकी प्राप्ति हई है और वीर्यान्तरायकर्मके नाश हो जाने के कारण उनको अनन्त वीर्यको प्राप्ति हुई है तथा नाम कर्मके अभावसे उनकी कोई मूर्ति नहीं है और आयुकर्मके नाश हो जानेके कारण न उनके जन्म है न मरण है तथा गोत्रकर्मका नाश हो गया है इसलिये उनका कोई गोत्र भी नहीं है और वेदनीयकर्मके नाश होजाने के कारण सिहोंके इन्द्रियजन्य सुखदुःख भी नहीं है।
भावार्थ:-जवतक आत्माके साथ ज्ञानावरण तथा दर्शनावरणका संबंध रहता है तबतक अनन्तज्ञान तथा अनन्तदर्शनकी प्राप्ति नहीं होती किन्तु सिहोंके सम्यग्ज्ञान तथा सम्यग्दर्शनके स्वरूपको सर्वथा ढकनेवाले ज्ञानावरण तथा दर्शनावरण दोनों नष्ट होगये हैं इसलिये वे अनन्तज्ञान तथा अनन्तदर्शनके धारी हैं उसीप्रकार जबतक मोहनीय तथा अंतरायकर्मका संबंध आत्माके साथ रहता है तबतक तो अनन्त सुख तथा अनन्त वीर्यकी उत्पत्ति नहीं होती किन्तु सिहोंके इनदोनों मोहनीय तथा अंतरायकर्मका भी अभाव है इसलिये वे अनन्त मुख तथा अनन्त वीर्यकर सहित हैं तथा नामकर्मके उदयसे आकार बनता है किन्तु सिहोंके नामकर्मका अभाव है इसलिये उनकी कोई मूर्ति आकार भी नहीं है तथा आयुकर्मके नाशसे जन्म तथा मरण होता है किन्तु सिहोंके आयुर्मका अभाव है इसलिये वे जन्म मरणकर रहित हैं और गोत्रकर्मकी कृपासे उच्चगोत्री तथा नीचगोत्री समझे जाते हैं उनके गोत्रकर्मका सर्वथा नाश होगया है इसलिये उनका कोई गोत्र भी नहीं है और साता तथा असाता वेदनीयकर्मके उदयसे इन्द्रियजन्य मुख तथा दुःख होता है किन्तु सिद्धोके २३४॥
०००००००००००००००००००००००००००००००6666660000000000000
...............................०००००००
-
.....
.
.........
For Private And Personal