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पचनन्दिपञ्चविंशतिका । अपने केवलज्ञान केवलदर्शन आदिगुणोंसे विराजमान है इसलिये शून्य भी नहीं है तथा यद्यपि पर्यायार्थिक नयकीअपेक्षासे अगुरुलघु गुणके द्वारा प्रतिक्षण वह विनाशीक भी है तोभी द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा उसमें नाश तथा उत्पाद धर्म नहीं हैं इसलिये वह नित्य भी है तथा परब्रव्य परक्षत्र परकाल परभावकी अपेक्षासे उसका अभाव है तोभी स्वद्रव्य खक्षेत्र खकाल स्वभावकी अपेक्षा वह मोजूद ही है, और अपने स्वरूपको छोड़कर पररूपको प्राप्त नहीं होती इसलिये यद्यपि वह एकरूप है तोभी ज्ञानसे अनेक पदार्थों को प्रत्यक्ष करती है इसलिये अनेक रूपभी है इसप्रकार वह सिहज्योति अनेक धर्मस्वरूप होनेपर भी स्याहादसे उसकी प्रतीति दृढ़ है अर्थात् स्याहादसिद्धान्तके आश्रयसे उसमें किसीप्रकारका दोष नहीं आता तथा अमूर्तीक है और ज्ञानमय तथा सुखमय है और कोई एकही मनुष्य उसको प्राप्त करसक्ता है हरएक मनुष्य नहीं ॥१३॥ स्याच्छब्दामृतगर्भितागममहारत्नाकरस्नानतो धौता यस्य मतिः सएव मनुते तत्वं विमुक्तात्मनः। तत्तस्यैव तदेव याति सुमतेः साक्षादुपादेयतां भेदेन स्वकृतेन तेन च विना स्वं रूपमेकं परम्॥१४॥
अर्थः-जिसपुरुषकी बुद्धि स्याहादरूपीजलसे भरेहवे विस्तीर्ण सागरमें स्नान करनेसे निर्मल होगई (धुलगई) है अर्थात् जो स्याहादका जानकार है वही मनुष्य सिद्धोंके स्वरूपको जानता है तथा वही वुद्धिमान उनसिहोंके स्वरूपको साक्षातरीतिसे प्राप्त होता है, अथवा अपनेसे कियाहुवा जो भेद उसके दूर होजानेपर अपना जो स्वरूप है वही सिद्धोंका स्वरूप है अर्थात् जवतक आत्मामें मेरा तेरा भेद रहता है तवतक तो आत्मा मलिन ही है किन्तु जिससमय यह भेदबुद्धि नष्ट होजाती है उससमय मलिनतारहित होनेकेकारण अपनी आत्माका स्वरूपही सिहस्वरूप है इसलिये भव्यजीवोंको चाहिये कि वे स्याहादके स्वरूप को भलीभांति पहिचानकर सिद्धोंके स्वरूपको पहिचाने ॥ १४ ॥
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