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पचनन्दिपञ्चविंशतिका । पुन्सोऽर्थेषु चतुर्पु निश्चलतरो मोक्षः परं सत्सुखः शेषास्तद्विपरीतधर्मकलिता हेया मुसुक्षोरतः। तस्मात्तत्पदसाधनत्वधरणो धोऽपि नो सम्मतो यो भोगादिनिमित्तमेव स पुनः पापं बुधैर्मन्यते २५
अर्थ-चारो पुरुषार्थो में मनुष्यकेलिये अविनाशी तथा उत्तमसुखका भंडार केवल मोक्षही पुरुषार्थ है किन्तु मोक्षसे आतिरिक्त अर्थ काम आदि पुरुषार्थ विपरीतधर्मके भजनेवाले है इसलिये वे मोक्षाभिलाषी को 'सर्वथा त्यागने योग्य है तथा धर्मनामक पुरुषार्थ यदि मोक्षका कारण होवे तो वह अवश्य ग्रहण करने योग्य है किन्तु यदि वही पुरुषार्थ नानाप्रकारके भोगविलासोका कारण होवे तो वह भी सर्वथा नहीं मानने योग्य हैं तथा ऐसे भोगविलासके कारण धर्मपुरुषार्थको ज्ञानीजन पापही कहते है।
भावार्थः-धर्म अर्थ काम तथा मोक्ष इसप्रकार चारप्रकारके पुरुषार्थ हैं उनसवमें अविनाशी तथा अनंतसुखकाभंडार मोक्षही उत्तमपुरुषार्थ है इसलिये विद्वानोंको वही ग्रहणकरने योग्य है परन्तु इससें विपरीत अर्थ आदि पुरुषार्थ हैं वे विनाशीक तथा दुःखकेकारण हैं इसलिये सर्वथा त्यागने योग्य हैं और यदि धर्मनामक पुरुषार्थ मोक्षका कारण होव वह तो विद्वानोंको सदा ग्रहणकरने योग्य है किन्तु यदि वही पुरुषार्थ नानाप्रकारके भोगोंका कारण होवे तो वह पापही है इसलिये सर्वथा वह त्याग करने योग्यही है इसलिये भव्यजीवोंको चाहिये कि वे मोक्षपुरुषार्थकलिये तो सर्वथाही प्रयत्नकरें तथा यदि धर्मनामक पुरुषार्थ मोक्षका साधन होवे तो उसकेलियेभी भलीभांति प्रयत्न करें किन्तु इनसे अतिरिक्त पुरुषार्थीको पापके कारण समझकर उनकेलिये कदापि प्रयत्न न करें ॥ २५ ॥ भव्यानामणुभितैरनणुभिः साध्योऽत्र मोक्षःपरं नान्यत्किश्चिदिहेव मिश्चयनयाजीवः सुखी जायते। सर्वतु व्रतजातमीदृशधिया साफल्यमेत्यन्यथा संसाराश्रयकारणं भवति यत्तदुःखमेव स्फुटम् ॥ २६ ॥
२२९॥
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