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पचनन्दिनविंशतिका ।
होता है उसघनके खर्च करनेका यदि मार्ग है तो यही है कि वह दान के काममें लाया जावे किन्तु इससे भिन्न उसधनके खर्चकरनेका कोई भी उत्तम मार्ग नहीं इसलिये सज्जन पुरुषों को चाहिये कि वे दानमार्गसेही धनका व्यय करै किंतु दानसे अतिरिक्त मार्गमें उसधनका उपयोग न करे ॥ १३ ॥
दानेनैव गृहस्थता गुणवती लोकद्वयोद्योतिका नैव स्पान्ननु तडिना धनवतो लोकदयध्वन्सकृत् । दुर्व्यापारशतेषु सत्सु गृहिणः पापं यदुत्पद्यते तन्नाशाय शशाङ्कशुभ्रयशसे दानं नचान्यत्परम् ॥ १४ ॥
अर्थः —— धनी मनुष्यों का गृहस्थपना दानसे ही गुणोंका करनेवाला होता है और दानसे ही दोनों लोकों का प्रकाशकरनेवाला होता है किन्तु बिना दानके वह गृहस्थपना दोनों लोकोंका नाश करनेवालाही है क्योंकि गृहस्थोंके सैकड़ों खोटे २ व्यापारोंके करनेसे सदा पापकी उत्पत्ति होती रहती है उसपापके नाशके लिये तथा चन्द्रमाके समान यशकी प्राप्तिकेलिये यह एक पात्रदानही है दूसरी कोई वस्तु नहीं है इसलिये अपनी आत्मा के हितको चाहनेवाले भव्यों को चाहिये कि वे पात्रदान से ही गृहस्थपनेको तथा घनको सफल करै ॥ १४ ॥ पात्राणामुपयोगि यत्किल धनं तद्वीमतां मन्यते येनानन्तगुणं परत्र सुखदं व्यावर्तते तत्पुनः । योगाय गतं पुनर्धनवतस्तन्नष्टमेव ध्रुवं सर्वासामिति सम्पदां गृहवतां दानं प्रधानं फलम् ॥ १५ ॥
अर्थः – जो धन उत्तमादिपात्रों के उपयोग में आता है विद्वान लोग उसीधनको अच्छा धन समझते हैं तथा वह पात्र में दिया हुवा धन परलोकमें सुखका देनेवाला होता है और अनन्तगुणा फलता है किन्तु जो धन नानाप्रकार के भोग विलासोंमें खर्च होता है वह धनवानोंका धन सर्वथा नष्टही हो गया ऐसा समझना चाहिये क्योंकि गृहस्थों के सर्वसम्पदाओंका प्रधान फल एक दानही है ।
भावार्थः यों तो धनी गृहस्थोंके प्रतिदिन नानाकार्यों में धनका खर्च होता रहता है परन्तु जो धन
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