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पञ्चनन्दिपश्चविंशतिका
देकर मुनियोंके शरीरको चारित्रके पालन करनेके लिये समर्थ बनाते हैं इसलिये मुनिधर्मकी प्रवृत्ति भी उत्तमश्रावकों से ही होती है अतः आत्माके हितकी अभिलाषा करनेवाले भव्य जीवोंका अवश्यद्दी मुनिध की प्रवृत्तिके प्रधानकारण इस गृहस्थ धर्मको धारण करना चाहिये ॥ ९ ॥
ज्ञानदानकी महिमाका वर्णन |
व्याख्या पुस्तकदानमुन्नतधियां पाठाय भव्यात्मनां भक्तचा यत्क्रियते श्रुताश्रयमिदं दानं तदाहुर्बुधाः । सिद्धेऽस्मिञ्जननान्तरेषु कतिषु त्रैलोक्यलोकोत्सव श्रीकारिप्रकाटीकृताखिलजगत्कैवल्यभाजोजनाः॥१०॥ अर्थः-- सर्वज्ञदेव से कहे हुवे शास्त्रका भक्तिपूर्वक जो व्यारव्यान किया जाता है तथा विशालबुद्धिवाले भव्यजीवोंको पढ़नेकेलिये जो पुस्तक दी जातीं हैं उसको ज्ञानीपुरुष शास्त्र (ज्ञान) दान कहते हैं तथा भयो को इस ज्ञानदानकी प्राप्तिके होने पर थोड़ेही भवोंमें, तीनोंलोकके जीवोंको उत्सव तथा लक्ष्मी के करनेवाले और समस्तलोकके पदार्थोंको हाथ की रेखाके समान देखनेवाले, केवलज्ञानकी उत्पत्ति होती है ।
भावार्थः – जो धर्मात्माश्रावक शास्त्रका व्याख्यान करते हैं तथा पुस्तक लिखकर तथा लिखवाकर देते हैं और पढ़ना पढ़ाना इत्यादि ज्ञानदान में प्रवृत्त होते हैं उन श्रावकोंको थोड़ेही कालमें समस्तलोकालोकको प्रकाशकरनेवाले केवलज्ञानीकी प्राप्ति होती है इसलिये अपने हितके चाहनेवाले भव्यजीवों को यह उत्तम ज्ञान दान अवश्यही करना चाहिये ॥ १० ॥
सर्वेषामभयं प्रवृद्धकरुणैर्यद्दीयते प्राणिनां दानं स्यादभयादि तेन रहितं दानत्रयं निष्फलम् । आहारौषधशास्त्रदानविधिभिः क्षुद्रोगजाब्याद्भयं यत्तत्पात्रजने विनश्यति ततोदानं तदेकं परम् ॥११॥ अर्थः- विस्तीर्ण करुणाके धारी भव्यजीवोंद्वारा जो समस्त प्राणियों के भयको छुटाकर उनकी रक्षाक
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