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पद्यनन्दिपञ्चविंशतिका । प्रतिष्टा आदि प्रतिदिन अनेक उत्तमकार्य होतेरहते हैं तथापि उनसच उचमकार्यों में संसारसमुद्रसे पार करनेमें जहाजके समान श्रेष्ठमुनि आदि पात्रोंको जो दानदेना है वह उन धर्मात्माश्रावकोंका सबसे प्रधान गुण (कर्तव्य) है इसलिये भव्यश्रावकोंको सदा उत्तम आदि पात्रों में दान देना चाहिये ॥ ७ ॥ सर्वो वाञ्छति सौख्यमेव तनुभृत्तन्मोक्षएव स्फुटं दृष्ट्यादित्रय एव सिध्यति स तन्निग्रन्थ एव स्थितम्। तद्वृत्तिर्वपुषोऽस्य वृत्तिरशनात्तद्दीयते श्रावकैः काले क्लिष्टतरेऽपि मोक्षपदवी प्रायस्ततोवर्तते ॥८॥
अर्थः-समस्तजीवोंकी अभिलाषा सदा यही रहा करती है कि हमको सुखमिल परन्तु यदि अनुभव किया जावेतो वास्तविक सुख मोक्षमें ही है और उसमोक्षकी प्राप्ति सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र स्वरूप रत्नत्रयकेधारणकरनेसे ही होती है और उसरत्नत्रयकी प्राप्ति निर्ग्रन्थ अवस्थामही होतीहै और निर्ग्रन्थ अवस्था शरीरके होते संतेही होतीहै तथा शरीरकी स्थिति अन्नसे रहतीहै और वह अन्न धर्मात्माश्रावकोंके द्वारा दियाजाता है इमलिये इस दुःखमकालमें मोक्षपदवीकी प्रवृत्ति गृहस्थोंकेदियेहुवेदानसे ही होती है ऐसाजानकर धर्मात्मा श्रावकों को सदा सत्पात्रोंकेलिये दान देना चाहिये ॥ ८ ॥
अव आचार्य औषधिदानकी महिमाका वर्णन करते हैं। स्वेच्छाहारविहारजल्पनतया नीरुग्वपुर्जायते साधूनां तु न सा ततस्तदपटु प्रायेण सम्भाव्यते ।। कुर्यादौषधपथ्यवारिभिरिदं चारित्रभारक्षमं यत्तस्मादिह वर्तते प्रशमिनां धर्मोगृहस्थोत्तमात् ॥९॥
अर्थः-इच्छानुसार भोजन भ्रमण तथा भाषाणसे शरीर रोग रहित रहता है परन्तु मुनियोंकेलिये न तो इच्छानुसार भोजन करनेकी ही आज्ञा है और न इच्छानुसार भ्रमण तथा भाषाणकी ही आज्ञा है इसलिये उनका शरीर सदा अशक्तही बना रहता है किन्तु धर्मात्मा श्रावकगण उत्तम दवा तथा पथ्य और निर्मल जल
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