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पचनन्दिपञ्चविंशतिका ।
अर्थः- सम्यग्दर्शनपूर्वक आठमूलगुणकापालना, तथा अहिंसादि पांच अणुव्रतोंका धारणकरना और दिग्व्रतआदि तीनगुणव्रत तथा देशावकाशिक आदि चारप्रकार के शिक्षाव्रत इसप्रकार इन सात शीलव्रतोंको पालना, और रात में खाय स्वाद्य आदि अहारोंका त्यागकरना और स्वच्छकपड़ेसे छानेहुवे जलका पीना तथा शक्तिके अनुकूल मौन आदि व्रतोंकाधारण, इसप्रकार ये श्रावकों के व्रत हैं तथा भलीभांति आचारण कियेहुवे ये श्रावकों के व्रत भव्यजीवोंको पुण्यके करनेवाले होतेहैं इसलिये धर्मात्मा श्रावकों को इनश्रावकों के व्रतोंका अवश्य ही ध्यानपूर्वक पालन करना चाहिये ॥ ५ ॥
देशव्रतकाधारी श्रावक इसशतिसे व्रतोंको धारण करता है ।
हन्ति स्थावरदेहिनः स्वविषये सर्वांस्त्रसान् रक्षति ब्रूते सत्यमचर्यवृत्तिमवलां शुद्धां निजां सेवते । दिग्देशनतदण्डवर्जनमतः सामायिकं प्रोषधं दानं भोगयुगं प्रमाणमुररीकुर्याद् गृहीति व्रती ॥६॥
अर्थः-- प्रतीश्रावक अपने प्रयोजनके लिये स्थावर कायके जीवोंको मारता है तथा दो इन्द्रियको आदिलेकर सैनीपचेंद्री पर्यंत समस्तत्रसजीवोंकी रक्षाकरता है और सत्यवोलता है तथा आचौर्यव्रतका पालन करता है और स्वस्त्रीका सेवन करता है तथा दिग्वत देशव्रत अनर्थदण्डव्रतका पालन करता है और सामायिक प्रोषधोपवास तथा दानको करता है और भोगोपभोगपरिमाण नामक व्रतको स्वीकार करता है ॥ ६ ॥ यद्यपि गृहस्थ कें देवपूजा आदिगुण हैं तोभी उनमें दान सबमें उत्तमगुण हैं इसत्रातको आचार्य बताते हैं । देवाराधनपूजनादिवहुषु व्यापारकार्येषु स पुण्योपार्जन हेतुषु प्रतिदिनं संजायमानेष्वपि । संसारार्णवतारणे प्रवहणं सत्पात्रमुद्दिश्य यत्तद्देशव्रतधारिणो घनवतो दानं प्रकृष्टो गुणः ॥ ७॥ अर्थः यद्यपि धनवान और धर्मात्मा श्रावकों के श्रेष्ठपुण्यके संचय करनेवाले जिनेन्द्र देवकी सेवा तथा पूजन
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॥२१९॥