________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
२१७॥
*******.
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
पद्यनन्दिपञ्चविंशतिकाः ।
जाता है किन्तु जो अत्यंत आनन्दके देनेवाले सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रयरूपीमोक्षमार्गसे वाह्य तथा वर्तमान कालमें शुभकर्मके उदयसे प्रसन्न हैं ऐसे मिथ्यामार्ग में गमन करनेवाले मिध्यादृष्टिमनुष्य यदि वहुतसे भी होवे तोभी वे प्रशंसा के योग्य नहीं है ।
भावार्थः पापके उदयसे दुःखितभी मनुष्य यदि वह सम्यग्दर्शनका धारक है तो वह अकेला हो प्रशंसाके योग्य है किन्तु जो सम्यग्दर्शनसे पराङ्मुख हैं तथा मिध्यामार्ग में स्थित हैं और सुखी हैं ऐसे मिथ्यादृष्टि चाहें अनेक भी होवे तोभी प्रशंसा के योग्य नहीं है इसलिये भव्यजीवोंको सम्यक्दर्शनके धारण करने में निरन्तर प्रयत्न करना चाहिये ॥ २ ॥
बीजं मोक्षतरोर्द्दशं भवतरोर्मिथ्यात्वमाहुर्जिनाः प्राप्तायां दृशि तन्मुमुक्षुभिरलं यत्नो विधेयो बुधैः। संसारे बहुयोनिजालजटिले भ्राम्यन् कुकर्मावृतः क प्राणी लभते महत्यपि गते काले हि तां तामिह॥ अर्थः मोक्षरूपी वृक्षका वीजतो सम्यग्दर्शन है तथा संसाररूपीवृक्षका वीज मिथ्यात्व है ऐसा सर्वज्ञदेवने कहा है इसलिये मोक्षाभिलाषीउत्तमपुरुषोंको सम्यग्दर्शनके पानेपर उसकी रक्षाकरनेमें अत्यंत करना चाहिये क्योंकि नरक तिर्यच आदि नानाप्रकार की योनियोंसे व्याप्त इससंसारमें अनादिकालसे भ्रमण करताहुवा और खोटेकमाँसे युक्त, यहप्राणी वहुतकालके व्यतीत होनेपर भी इस सम्यग्दर्शनको कहां पासक्ता है ? अर्थात् सम्यग्दर्शनका पाना अत्यंतदुर्लभ है ॥ ३ ॥
प्रयत्न
औरभी आचार्य उपदेश देते हैं ।
सम्प्राप्तेऽत्र भवे कथं कथमपि द्राघीयसाऽनेहसा मानुष्ये शुचिदर्शने च महता कार्यं तपो मोक्षदम् । नो चेल्लोकनिषेधतोऽथ महतो मोहादशक्तेरथ सम्पद्येत न तत्तदा गृहवतां षट्कर्मयोग्यं व्रतम् ॥ ४ ॥
For Private And Personal
॥२१७॥