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पयनन्दिपश्चविंशविका
अन्यलभावनाका खरूप । क्षीरनीरवदेकत्र स्थितयोर्देहदेहिनोः ।
भेदोयदि ततोन्येषु कलत्रादिषु का कथा ॥४९॥ अर्थः-शरीर और आत्माकी स्थिति दृध तथा जलके समान मिली हुई है यदि ये दोनों भी परस्परमें भिन्न हैं तो सर्वथा भिन्न स्त्री पुत्र आदि तो अवश्यही भिन्न हैं इसलिये विद्वानोंको शरीर स्त्री पुत्र आदिको अपना कदापि नहीं मानना चाहिये ॥ ४९ ॥
अशुचिलभावनाका वर्णन । तथाऽशुचिरयं कायः कृमिधातुमलान्वितः।।
यथा तस्यैव सम्पकोंदन्यत्राप्यपवित्रता ॥ ५० ॥ अर्थः--कीड़ा धातु मल मूत्र आदि अपवित्रपदार्थों से भरा हुवा यह शरीर इतना अपवित्र है कि उसके संबन्धसे दूसरीवस्तु भी अपवित्र हो जाती है।
भावार्थ:-अतर चन्दन वस्त्र आभूषण आदि यद्यपि अत्यन्तसुगंधित तथा पवित्रपदार्थ हैं तो भी यदि उनका संबन्ध एकसमय भी इसशरीरसे हो जावे तो वे सर्व अपवित्र हो जाते हैं तथा ऐसे अपवित्र : हो जाते हैं कि फिरसे सज्जनपुरुष उनके स्पर्शकरने में भी घुणा करते हैं और विष्टा मूत्र कफ आदि अपवित्र वस्तुओंकी भी उत्पत्ति इसीशरीरसे होती है इसलिये इसशरीरके समान संसारमें कोई भी अपवित्र पदार्थ नहीं है अतः सज्जनों को कदापि इसमें ममल नहीं रखना चाहिये किन्तु इससे होनेवाले जो तप आदि उत्तम कार्य है उनसे इसको सफल ही करना चाहिये ॥ ५० ॥
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॥२०॥
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