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पद्मनन्दिपश्चविंशतिका । निर्जराके स्वरूपका बर्णन ।
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निर्जरा शातनं प्रोक्ता पूर्वोपार्जितकर्मणाम् ।
तपोभिर्बहुभि सा स्याद्वैराग्याश्रितचेष्टितैः ॥ ५३ ॥
अर्थः — पहिले संचितहुए कर्मोंका जो एकदेशरूपसे नाशहोना है वही निर्जरा है तथा वह निर्जरा संसार देह आदिसे वैराग्यकरानेवाले अनशन अत्रमोदर्यादि तपसे होती है ।
भावार्थः – संसार शरीर आदिसे विरक्त होकर अनशनादि तपसे जो पूर्वसंचितकर्मों का क्षयकरना है उसी का नाम निर्जरा है और उसनिर्जरा के उपायका चितवन करना निर्जराभावना है ॥ ५३ ॥
लोकानुप्रेक्षाका स्वरूप ।
लोकः सर्वोऽपि सर्वत्र सापायस्थितिरध्रुवः ।
दुःखकारीति कर्तव्या मोक्षएव मतिः सताम् ॥ ५४ ॥
अर्थः——यह समस्तलोक विनाशीक और अनित्य है तथा नानाप्रकारके दुःखों का करनेवाला है ऐसा विचार कर उत्तमपुरुषको सदा मोक्षकी ओर ही बुद्धि लगानी चाहिये ॥ ५४ ॥
बोधिदुर्लभ भावनाका स्वरूप ।
रत्नत्रयपरिप्राप्तिर्बोधिः सातीवदुर्लभा ।
लब्धा कथं कथञ्चिचेत्कार्यो यत्त्रो महानिह ॥ ५५ ॥
अर्थः- सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्रस्वरूपरत्नत्रय की जो प्राप्ति है उसीका नाम बोधि है
१ पवित्रातिरियपि पाठान्तरम् ।
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