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पअनन्दिपञ्चविंशतिका ।
आस्रवभावनाका स्वरूप । जीवपोतो भवाम्भोधौ मिथ्यात्वादिकरन्ध्रवार ।
आस्रवति विनाशार्थ कर्माम्भः प्रचुरं भ्रमात् ॥ ५१ ॥ अर्थः--इस संसाररूपीसमुद्र में जिससमय यह जीवरूपीजहाज मिथ्याल अविरति प्रमाद कषाय योगरूप छिद्रोंसे सहित होता है उससमय यह अपने विनाशकेलिये अज्ञानतासे प्रचुर कर्मरूपी जळको आस्रवरूप करताहै।
भावार्थ:-जिसप्रकार समुद्र में जिससमय जहाजमें छिद्र हो जाते हैं उससमय वह उनछिद्रोंसे अपने डुवाने केलिये स्वयं जलको ग्रहण करता है उसीप्रकार यह जीव जिससमय मिथ्यावादि कर्मबन्धके कारणोंकर संयुक्त होता है उससमय यह अपने विनाशकेलिये स्वयं कर्मको ग्रहण करता है इसलिये भव्यजीवोंको इसप्रकार आस्रवके खरूपको जानकर कमौके रोकनेकेलिये ही प्रयत्न करना चाहिये ॥ ५१ ॥
संवरका खरूप । कर्मास्रवनिरोधोऽत्र संवरो भवति ध्रुवम् ।
साक्षादेतदनुष्ठानं मनोवाकायसंवतिः॥ ५२ ॥ अर्थः-आयेहुए काँका जो रुक जाना है वही निश्चयसे संवर है तथा मन बचन कायका जो संवरण (स्वाधीन) करना है यही संवरका आचरण है।
भावार्थ:-जिससमय मन बचन कायखरूपयोग, मिथ्यात्व कषाय आदिसे रहित होकर गुप्ति समिति धर्म अनुप्रेक्षाके चितवनमें तथा परीषहोंके जीतनेमें लीन होता है उसीसमय संवर होता है इसलिये संवरकी प्राप्तिके अभिलाषियोंको मन वचन कायको अशुभप्रवृत्तिसे अवश्य रोकना चाहिये ।। ५२ ॥
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