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पअनन्दिपश्चविंशतिका । साम्यं स्वास्थ्यं समाधिश्च योगश्चेतोनिरोधनम् ।
शुद्धोपयोग इत्येते भवन्त्येकार्थवाचकाः ॥ ६४ ॥ अर्थः--साम्य, स्वास्थ्य, समाधि, योग, चित्त, निरोध, शुद्धोपयोग, ये सर्वशब्द एकही अर्थ के कहनेवाले हैं अर्थात् इन शब्दों के नाम जुदे २ हैं किन्तु अर्थ एकही है ॥ ६ ॥ और भी आचार्यवर साम्यही के स्वरूपका वर्णन करते हैं।
नाकृति क्षरं वणों नो विकल्पश्च कश्चन ।
शुद्धचेतन्यमेवैकं यत्र तत्साम्यमुच्यते ॥ १५ ॥ अर्थः--जिसमें न कोई आकार है और न कोई अक्षर है और न कोई नीलाआदि वर्ण है और न जिसमें कोई विकल्प है किन्तु जिसमें केवल एक चैतन्यही है वही साम्य है ॥६५॥
साम्यमेकं परं कार्य साम्यं तत्वं परं स्मृतम् ।
साम्यं सर्वोपदेशानामुपदेशो विमुक्तये ॥ ६६ ॥ अर्थः-साम्यही एक उत्कृष्ट कार्य है और साम्यही एक उत्तम तत्व है तथा साम्यही मुक्तिकेलिये समस्तउत्तमउपदेशोंमेंसे उपदेश है ।। १६ ॥
साम्यं सद्बोधनिर्माणं शश्वदानन्दमन्दरम् ।
साम्यं शुद्धात्मनोरूपं दारं मोक्षकसद्मनः॥ ६७ ॥ अर्थः--इस साम्यसेही भव्यजीवोंको सम्यग्ज्ञानकी प्राप्ति होती है तथा इससाम्यसेही अविनाशी सुख मिलता है और यह साम्यही शुद्धात्माका स्वरूप है तथा यह साम्यही मोक्षरूपी मकानका द्वार है॥१७॥
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