________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kcbatirth.org
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀܀
पवनन्दिपञ्चविंशतिका । भावार्थ:-जिसप्रकार राजा सप्तांगसेनासे शत्रुका विजयकरता है उसीप्रकार यह पापरूप राजा भी सप्तव्यसनरूपी सप्तांगसेनासे धर्मरूपी शत्रुको जीतता है इसलिये जो पुरुष धर्मकी रक्षा करना चाहते हैं उन को इन सप्तव्यसनोंका सर्वथा त्याग करदेना चाहिये ॥ १३ ॥
आचार्य छै अवश्यकोंकी महिमाका वर्णन करते हैं। प्रपश्यन्ति जिनं भक्त्या पूजयन्ति स्तुवन्ति ये
ते च दृश्याश्च पूज्याश्च स्तुत्याश्च भुवनत्रये ॥१४॥ अर्थः-जो भव्यजीव जिनेंद्रभगवानको भक्तिपूर्वक देखते हैं तथा उनकी पूजा स्तुति करते हैं वे भव्यजीव तीनोंलोकमें दर्शनीय तथा पूजाके योग्य तथा स्तुतिके योग्य होते हैं अर्थात् सर्वलोक उनको भक्तिसे देखता है तथा उनकी पूजा स्तुति करता है ॥ १४ ॥
ये जिनेन्द्रं न पश्यन्ति पूजयन्ति स्तुवन्ति न
निष्फलं जीवितं तेषां तेषां धिक् च गृहाश्रमम् ॥१५॥ अर्थ:-किन्तु जो मनुष्य जिनेन्द्रभगवानको भक्तिसे नहीं देखते हैं और न उनकी भक्तिपूर्वक पूजा स्तुतिही करते हैं उनमनुष्योंका जीवन संसार में निष्फल है तथा उनके गृहस्थाश्रमकेलिये भी धिकार है॥१५॥
प्रातरुत्थाय कर्तव्यं देवतागुरुदर्शनम् भक्त्या तद्धन्दना कार्या धर्मश्रुतिरुपासकैः ॥१६॥ पश्चादन्यानि कार्याणि कर्तव्यानि यतो बुधैः धर्मार्थकाममोक्षाणामादौ धर्मः प्रकीर्तितः ॥ १७ ॥
+1406161.......................1000001..
+++++
१९८॥
For Private And Personal