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पबनन्दिपञ्चविंशविका।
छिनत्ति स खयं मूढः परत्र सुखमात्मनः ॥३४॥ अर्थः-समर्थहोकर भी जो पुरुष आदरपूर्वक यतीश्वरों को दान नहीं देता वहमूपुरुष आगामी जन्ममें होनेवाले अपने सुखको स्वयंनाशकरता है।
भावार्थः-जो मनुष्य एकसमय भी यतीश्वरोको नवधाभक्तिसे दानदेता है उसको परभवमें नानाप्रकारके स्वर्गआदि सुखोंकी प्राप्ति होती है किन्तु जो पुरुष समर्थहोकर भी आदरपूर्वक यतीश्वरोको दान नहीं देता वह वर्गआदि सुखके बदले नानाप्रकारके नरकों के दुःखोंको भोगता है इसलिये समर्थगृहस्थों को तो अवश्यही दानदेना चाहिये ॥ ३४ ॥
दृषन्नावा समो ज्ञेयो दानहीनो गृहाश्रमः
तदारूढो भवाम्भोधौ मजत्येव न संशयः ॥३५॥ अर्थः-जो गृहस्थाश्रम दानकर रहित है वह पत्थरकी नावके समान है तथा उस गृहस्थाश्रमरूपी पत्थरकी नावमें बैठनेवाला मनुष्य नियमसे संसाररूपी समुद्र में डूबता है ।
भावार्थः-जो मनुष्य पाषाणसे बनीहुई नावपर चढ़कर समुद्रको तरना चाहता है वह जिसप्रकार नियमसे समुद्र में डूबता है उसीप्रकार जिस गृहस्थाश्रममें यतीश्वरोंकोलये दान नहीं दियाजाता उस गृहस्थामश्रमें रहनेवाले गृहस्थ कदापि संसारको नाशकर मोक्ष नहीं पासक्ते इसलिये संसारसे तरनेकी अभिलाषा करनेवाले भन्यजीवोंको अवश्यही यतीश्वरोंको दानदेना चाहिये ॥ ३५ ॥
स्वमतस्थेषु वात्सल्यं स्वशक्त्या ये न कुर्वते वहुपापावृतात्मानस्ते धर्मस्य पराङ्मुखाः ॥३६॥
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