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पद्मनन्दिपश्चविंशतिका । अर्थः-जो मनुष्य साधर्मीसज्जनोंमें शक्तिके अनुसार प्रीति नहीं करते उन मनुष्योंकी आत्मा प्रबल पापसे ढकीहुई है और वे धर्मसे पराङ्मुख हैं अर्थात् धर्मके अभिलाषी नहीं हैं इसलिये भव्यजीवोंको साधर्मी मनुष्योंर्के साथ अवश्य प्रीति करनी चाहिये ॥ २६ ॥
येषां जिनोपदेशेन कारुण्यामृतपूरिते
चित्ते जीवदया नास्ति तेषां धर्मः कुतोभवेत् ॥३७॥ अर्थ:-जिनेन्द्रभगवानके उपदेशसे करुणासे पूरित भी जिन मनुष्योंके चित्तोंमें दया नहीं है उन | मनुष्योंके धर्म कदापि नहीं होसक्ता ।
भावार्थः-समस्तजीवोंपर दयाभावरखना इसीकानामधर्म है किन्तु जिनेन्द्रभगानके उपदेशसे जिन मनुष्यों के चित्त करुणारससे भरेहए है ऐसे मनुष्यों के भी अंतरंगमें यदि दया नहीं है तो वे मनुष्य, धर्मके पात्र कदापि नहीं होसक्ते इसलिये उत्तमपुरुषोंको जीवोंपर अवश्य दयाकरनी चाहिये ।। ३७ ॥
मूलं धर्मतरोराद्या व्रतानां धाम सम्पदाम
गुणानां निधिरित्यङ्गिन्दया कार्या विवेकिभिः ॥३८॥ अर्थः-धर्मरूपी वृक्षकीजड़ तथा समस्तबतोंमें मुख्य और सर्वसंपदाओंका स्थान तथा गुणोंका खजाना यह दया है इसलिये विवेकी मनुष्योंको यहदया अवश्य करनी चाहिये ।
भावार्थ:-जिसप्रकार चिनाजड़के वृक्ष नहीं ठहरसक्ता उसीप्रकार चिना दयाके धर्म नहीं होसक्ता इस लिये यहदया धर्मरूपी वृक्षकीजड़ है तथा समस्तअणुव्रत तथा महावतोंमें यह मुख्य है क्योंकि बिनादयाके पालनकियेहुए अणुव्रत तथा महाबत सर्वनिष्फल है और इसीदयासे बड़ी २ इन्द्र चक्रवर्ती आदिकी संपदाओंकी
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